________________
द.
समीक्षक दोनों व्यवहारनयों के उपचरित और अनुपचरित के रूप में दो-दो भेद करके भी उन्हें जो अपने-अपने ढंग से वास्तविक मानना चाहता हैं, सो हम यहां यह नहीं समझ पाये कि उसके कथनानुसार वह अपना-अपना ढंग क्या है, जिससे उपचरित कथन को भी वास्तविक माना जावे। यदि समीक्षक कृपा करके उस "अपने-अपने ढंग को" स्पष्ट कर देता तो इससे तत्त्व निर्णय में सहायता मिलती। यह तो उसके मत में ऐसा कहना हुआ कि वास्तव में यह बात तो झूठ है, पर अपने ढंग से वास्तविक है। तत्त्व निर्णय का यह तरीका तो नहीं है । अपने मत की रक्षा करना और बात है और तत्त्व निर्णय करना और बात है। (स० पृ. ११)
आगे समीक्षक लिखता है कि "व्यवहारनय चाहे सद्भूत हो, असद्भूत हो, अनुपचरित हो या उपचरित हो- सभी रूपों में अपने-अपने ढंग से वास्तविक ही है अर्थात् कोई भी नय आकाशकुसुम की तरह कल्पनारोपित नहीं हैं। यहाँ परमार्थ, वास्तविक या सद्भूत तीनों शब्दों से यही प्राशय ग्रहण करना है कि उक्त चारों प्रकार के व्यवहारनयों में से कोई भी नय कल्पनारोपित नहीं है।" यह समीक्षक का कहना है तथा वह इसकी पुष्टि में तीन प्रमाण देता है -
' (१) जिस नय का जो विषय है, वह अन्य नय का विषय नहीं हो सकता । जैसे निश्चयनय नित्य को विषय करता है और व्यवहारनय अनित्य को विषय करता है। यदि निश्चयनय की अपेक्षा से भी द्रव्य को अनित्य कहा जायेगा तो व्यवहारनय तथा निश्चयनय में कोई अन्तर नहीं रहेगा।"
(२) "यदि व्यवहारनय के विषय को प्रामाणिक नहीं माना जायेगा तो व्यवहानय मिथ्या
हो जायगा।"
(३) "एक द्रव्य के खण्ड या दो द्रव्यों का सम्बन्ध व्यवहारनय का विषय है। अतः दो द्रव्यों का सम्बन्ध होने के कारण निमित्त-नैमित्तक सम्बन्ध का कथन व्यवहारनय से ही हो सकता है, निश्चयनय से नहीं।" (स० पृ० ९२)
___अब यहां यह देखना है कि समीक्षक ने जो अपने कथन के सम्बन्ध में तीन प्रमाण उपस्थित किये हैं, वे कहां तक ठीक हैं ?
.(१) पहली बात तो यह है कि प्रत्येक द्रव्य द्रव्याथिकनय से नित्य है और पर्यायाथिकनय से अनित्य है, यह वस्तुस्थित है। इनमें से द्रव्य जैसे सदस्वरूप है, वैसे पर्याय भी सदस्वरूप है, कोई कल्पनारोपित नहीं है। फिर भी अध्यात्म में जो अनित्यता को व्यवहारनय का विषय कहां गया है, सो उसका प्रयोजन दूसरा है । पर इस पर से जितने भी व्यवहारनय हैं, उन सबके विषयों को परमार्थभूत मान लिया जाय तो ऐसा भी नहीं है । जो सदुभूत व्यवहारनय है, उसका विषय द्रव्य का एक अंश होने से है तो सद्भूत ही, पर उसमें पूरे द्रव्य का आरोप कर लेना यही व्यवहार है और
इसीलिए अध्यात्म में द्रव्य का एक अंश सद्भूतव्यवहारनय का विषय माना गया है। परन्तु यह स्थिति असद्भूत व्यवहारनय की नहीं है। उसका विषय परमार्थभूत न होकर भी इष्टार्थ की सिद्धि में साधक होने से प्रयोजनवश उसे सम्यकनय मान लिया गया है, निष्प्रयोजन नहीं। इसलिये समीक्षक ने जो असद्भूत व्यवहारनय को सम्यक्नय ठहराकर उसके विषय को भी परमार्थ भूत सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, सो उसे, उसका दुःसाहस ही कहना चाहिए । असत् को असत् कहने