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खा. त. च. प. ४६ प्रवचनसार के परिशिष्टं में कहे गये ४७ नयों के प्राधार पर जो हमने वक्तव्य दिया था उसे स. पृ. ८४ में समीक्षक यद्यपि स्वीकार तो कर लेता है, परन्तु उन ४७ नयों में कालनय, अकालनय और नियतिनय, अनियतिनय के आधार पर जो व्याख्या प्रस्तुत करता है, वह इस स्वीकृति के विरुद्ध होने से स्वीकार करने योग्य नहीं मानी जा सकती; क्योंकि जहां उन नय वचनों से यह फलित होता है कि कॉलनय का जो विषयं है, वही विवक्षा भेद से अकाल नया का विषय है, किन्तु समीक्षक इसे स्वीकार न कर अपनी कल्पित मान्यता को ही दोहराता जाता है, जिसकी मागम से त्रिकाल में पुष्टि नहीं होती। लोक में ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो अपने नियत कालको छोड़कर वाह्य निमित्त के बल से आगे-पीछे किया जा सकता है। समीक्षक अपने मत के समर्थन में जो षड्गुणि हानि-वृद्धिरूपं पर्यायों का नियत क्रम से होना स्वीकार करके स्व-पर प्रत्यय पर्यायों को वाह्य निमित्त के वल से जो नियत-क्रम से और अनियत क्रम से स्वीकार करता है, सो इस सम्बन्ध में हमारा इतना ही संकेत करना पर्याप्त है कि जिसरूप में समीक्षक ने दोनों प्रकार की पर्यायों को स्वीकार किया है, वह आगम का अभिप्राय नहीं है । इसकी चर्चा हम पहले विस्तार से कर आये हैं, इसलिये यहाँ उनकी विशेष रूप से चर्चा नहीं करना हैं। (स. पृ. २४-८५)
इसके बाद का शेष कथन पुनरुक्त होने से उसका विचार करना हमें इष्ट प्रतीतं नहीं होता। उसकी चर्चा करें भी तो हम भी पुनरुक्त दोष के भागी होंगे।
कथन ३० का समाधान :- स. पृ. ९१ में समीक्षक सद्भूत व्यवहारनय और असद्भूत व्यवहार नय इन दोनों नयों के उपचरितं और अनुपचरित भेदों को स्वीकार करके लिखता है कि वे "अपने-अपने ढंग से वास्तविक हैं, जिनका अभिप्राय मात्र इतना ही है कि इनमें से कोई भी भेद आकाश -कुसुम के समान कल्पनारोपित नहीं है । पूर्व में उद्धत आ. विद्यानन्दि के तत्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. १५१ के कथन में उक्त सभी प्रकार के व्यवहार नयों को पारमार्थिक कहकर उनकी कल्पनारोपितता का निषेध किया गया है ।"
यह समीक्षक का वक्तव्य है । अब यहां यह देखना है कि जो कार्य के बाह्य निमित्त हैं, उन्हें हम किस रूप में निमित्त मानते हैं और किस रूप में उन्हें कल्पनारोपित मानते हैं.। निमित्त मानने का कारण एक कालप्रत्यासत्ति ही है । ऐसा नियम है कि जिस समय एक द्रव्य विवक्षित कार्य करता है तो उस समय उसके नियत बाह्य निमित्त एक या अनेक अवश्य होते हैं । इसी वातं को स्पष्ट करते हुए उसी तत्वार्थवार्तिक में कहा है -
यतो मृदःस्वयमन्तर्घटभवनपरिणामामुखे सति दण्ड-चक्रपौरुषेयप्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति ।
मिट्टी के.स्वयं भीतर से घट होने रूप परिणाम के सन्मुख होने पर दण्ड, चक्र और पुरुष सम्बन्धी प्रयत्न प्रादि निमित्तमात्र होते हैं ।
इस-प्रमाण से उन तथ्यों पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है - (१) मिट्टी पर की अपेक्षा लिए बिना स्वयं ही घटरूप परिणमन के सन्मुख होती है। . (२) तभी दण्डौं चक्र और कुम्भकार का व्यापार उसमें निमित्त व्यवहार को प्राप्त
होता है।