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जव उपादान कर्ता होकर स्वयं अपने कार्यरूप.नहीं परिणम रहा है, तब उसे अन्य परिण मन कराने वाले की अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि वस्तु की शक्तियां अपने कार्य में अन्य की अपेक्षा नहीं करतीं।
(ख) अब दूसरी वात, सो जव उपादान कर्ता होकर स्वयं नहीं परिणमता तो इसका अर्थ होता है कि उसमें उस समय स्वयं परिणमने की शक्ति नहीं है और जो स्वयं परिणमन की शक्ति नहीं रखता, उसको अन्य प्रेरक कारण परिणमा भी नहीं सकता। इसी बात को ध्यान में रखकर समयसार गाथा १२१-१२५ में भी कहा है -
न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते । जिसमें जो शक्ति स्वतः नहीं होती है, उसे अन्य कोई कर नहीं सकता।
प्रेरक कारण कार्य की उत्पत्ति के लिये प्रेरणा करता है, यह भी जो समीक्षक कहता है वह भी उक्त कथन पर दृष्टिपात करने से मिथ्या ठहर जाता है।
(३) समीक्षक प्रेरक कारण के वल पर कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है, यह कहता है तो यह कहना भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जैन शासन में जब प्रेरक नाम का कोई कारण ही नहीं है, ऐसी अवस्था में उसके वल पर कार्य के आगे-पीछे होने का सवाल ही नहीं उठता ।
कार्य-कारण भाव की दृष्टि से देखने पर भी काल के जितने समय हैं, उतने ही काल सहित प्रत्येक द्रव्य के कार्य हैं। इसलिये जिस काल में जिस कार्य के होने का नियम है, उस काल में वह कार्य स्वयं ही नियम से होता है, यह अवस्था बन जाती है। वाह्य कारण का कथन किस काल में कौन कार्य हुआ, इसकी सूचना मात्र के लिये ही किया जाता है । ऋजुसूत्रनय से देखा जाये तो अपनेअपने काल में कार्य स्वयं होता है । उसकी सत्ता परकी अपेक्षा से नहीं है। इसके लिये समीक्षक को दर्शन प्रभावक, आद्य स्तुतिकार स्वामी समंतभद्र द्वारा रचित आप्तमीमांसा कारिका ७५ की अष्टसहस्री टीका के इस वचन पर दृष्टिपात कर लेना चाहिये -
न हि कर्तृ स्वरूपं कर्मापेक्षं कर्मस्वरूपं वा कत्रपेक्षम् उभयासत्वप्रसंगात् ।
कर्ता का स्वरूप कर्म सापेक्ष नहीं है। उसी प्रकार कर्म का स्वरूप कर्तृ सापेक्ष नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर दोनों के असत्व का प्रसंग आता है। . . यह वस्तु स्थिति है। इसे ध्यान में रखकर ऋजुसूत्र नय से हम यह भी कह सकते हैं कि कार्य का स्वरूप उपादान कारण सापेक्ष नहीं है। इसी प्रकार उपादान कारण का स्वरूप कार्यसापेक्ष नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर दोनों के अभाव होने का प्रसंग आता है। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि इन दोनों का व्यवहार परस्पर सापेक्ष नहीं होता, क्योंकि इन दोनों की सिद्धि एक दूसरे के आधार से होती है।
अव रही वाह्य निमित्त की वात, सो कोई भी वस्तु अन्य द्रव्य के किसी भी कार्य का स्वरूप से कारण नहीं हुआ करता । मात्र कालप्रत्यासत्ति वश कारण न होने पर भी प्रयोजन को ध्यान में रखकर उसमें कारणपने का व्यवहार कर लिया जाता है।