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प्रस्तुत किये हैं, वे मात्र विवक्षा को सूचित करते हैं, उनसे अन्य कोई प्रयोजन फलित नहीं होता,
इसलिये प्रयोजनीय अनुपयोगी जानकर उनके विषय में हम कुछ नहीं लिख रहे हैं ।
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कथन २५ का समाधान:- • स०पू० ६७ में समयसार गाथा ६८ के माध्यम से समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "समयसार गाथा ६८ की टीका में यह कहा गया है कि जिसप्रकार जो से जो उत्पन्न होता है, उसी प्रकार रागादि पुद्गल कर्मो से रागादि उत्पन्न होते हैं, इसीकारण निश्चयनय से रागादिभाव पौद्गलिक हैं ।" साथ ही इसका स्पष्टीकरण करते हुए समीक्षक का कहना है कि यहाँ रागादिभाव का कारणभूत पुद्गलकर्म का उदय निमित्त कारण होते हुए भी प्रधान कारण है, इसलिये वे निश्चयनय से पौद्गलिक हैं ।" अपने इस मत के समर्थन में उसने स० पृ० ६८ पर लिखा है कि "इसी प्रकार जीव में जो रागादि भाव उत्पन्न होते हैं, वे यद्यपि जीव के शुद्ध स्वभाव की विकृति मात्र होने से उपादान कारणभूत जीव की परिणतियाँ हैं, परन्तु उन्हें जीव की परिणति न वोलकर श्रागम में यही बोला गया है कि वे पौद्गलिक हैं। ऐसा बोलने का कारण यह है कि जीव उन परिगतियों में उपादान कारण होते हुए भी प्रधान कारण नहीं है और पुद्गल कर्म उन परिणतियों में सहायक (निमित्त ) कारण होते हुए भी प्रधान कारण है। इस तरह जीव की वे रागादिभाव रूप परिणतियां निश्चयनय से तो श्रागम में पौद्गलिक मानी गयी हैं और व्यवहारनय से ये जीव की परिगतियाँ मानी गयी हैं ।"
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समयसार गाथा ६८ के खुलासा के रूप में यह समीक्षक का वक्तव्य है, जो वस्तुस्थिति को स्पर्श नहीं करता, कारण कि अशुद्ध निश्चयनय से देखा जावे तो रागादि परिणतियां जीव ने ही परनिरपेक्ष होकर अपने में स्वयं उत्पन्न की हैं । पुद्गल कर्म का उदय तो उसमें निमित्त मात्र है । पुद्गल कर्म का उदय प्रधान कारण है और उपादान कारणरूप जीव श्रप्रधान कारण है, इसलिये उन्हें ( रागादि को ) निश्चयनय से पौद्गलिक कहा गया हो ऐसा नहीं है, किन्तु शुद्धनिश्चयनय त्रिकाली स्वभाव को ही स्वीकार करता है और इस विवक्षा में अशुद्ध निश्चयनय व्यवहार कोटि में परिणमित हो जाता है । यतः शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में रागादि परिणतियां त्रिकाली स्वभाव से भिन्न होने के कारण पर हैं, इसलिये समयसार गाथा ६८ में शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा उन्हें नित्य अचेतन अर्थात् पौद्गलिक कहा गया है । (स० गा० ६८ तात्पर्यवृत्ति टीका देखो )
यह समयसार गाथा ६८ की दोनों संस्कृत टीकानों के आधार पर लिखी गई तथ्यपूर्ण व्याख्या है, अत: समीक्षक ने स० पृ० ६० से ७० तक जो कुछ लिखा है, वह उपेक्षनीय जानकर उसकी हम यहाँ पर चर्चा करना इष्ट नहीं मानते, क्योंकि पिष्टपेषरण होने से उससे कोई फल निष्पन्न होने वाला नहीं है । साथ ही यहाँ भी समीक्षक को यह जान लेना चाहिये कि कहीं निमित्त प्रधान होता हो और कहीं उपादान प्रधान होता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रधानता और अप्रधानता विवक्षा में हुआ करती है वस्तु में नहीं ।
कथन २६ का समाधान: -- समयसार गाथा ११३ ११५ के आधार से समीक्षक ने खा० त० च० पृ० १२ में लिखा है कि जिस प्रकार उपयोग जीव से अनन्य है, उस प्रकार क्रोध जीव से अनन्य नहीं है ? इसके उत्तरस्वरूप जयपुर खा० त० चर्चा पृ० ४२ में हमने यह स्पष्ट कर दिया था कि समयसार गाथा ११३ ११५ में भी ( गाथा ६८ के अनुसार ) " वही श्राशय व्यक्त किया गया है" सो