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प्रत्यासत्तिवश कर्मोदय में निमित्त व्यवहार होने के साथ उससे सूचना मिलती है कि इस समय जीव ने पिछली पर्याय से भिन्न स्वयं ही पर की अपेक्षा किये बिना रागादि रूप विभाव परिणति की । स्पष्ट है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्य में इन दो विकल्पों को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार से सहायक नहीं हो सकता ।
स० पृ० ६५ के अंक (२) के अन्तर्गत खा० त० च० पृ० ३८ में हमने अध्यात्म को ध्यान में रखकर जो वक्तव्य दिया है, उसकी अनुपयोगिता सिद्ध करते हुए (क) विभाग के अन्तर्गत समीक्षक कहता है कि " यद्यपि रागादि जीव के परिणाम हैं, अर्थात् जीव उनका उपादान होने से उन रूप परिगमता है, परन्तु उनका प्रधान उपादान कारणभूत जीव न होकर जीव को उनरूप परिणमित होने में सहायता प्रदान करने वाला निमित्त कारणभूत पुद्गलकर्म का उदय है । इसमें हेतु यह है कि ये रागादिभाव उपादान कारणभूत जीव में तभी तक उत्पन्न होते हैं, जब तक उसमें कर्म का उदय विद्यमान रहता है और जव उसमें कर्म के उदय का उस कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम के आधार पर अभाव हो जाता है, तब उसमें उन रागादिभावों का अभाव भी नियम से हो जाता है ।" .
यह अध्यात्म की अनुपयोगिता को बतलाने वाला समीक्षक का वक्तव्य है । इसमें कर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम के साथ जो रागादि भावों के अभाव की समव्याप्ति बिठलाई गई है, सो यहाँ देखना यह है कि जब जीव अपने उपयोग द्वारा स्वभाव सन्मुख होकर उपयोग में रागादि के प्रभावरूप से परिणमता है, तब उसके निमित्त से कर्मों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होता है या कर्मों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने से जीव रागादि के प्रभावरूप से परिणमता हैं - ये दो विकल्प विचारणीय हैं । प्रथम विकल्प तो मोक्षमार्ग में इसलिये ग्राह्य है, क्योंकि जब जीव स्वयं उपयोग द्वारा स्वभाव सन्मुख होकर सम्यग्दर्शनादि परिणाम रूप से परिगत होता, तब रागादि के अभाव के साथ उसके निमित्तभूत कर्मों का स्वयं उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाता है, इसलिये यह कहना तो सिद्ध होता नहीं कि कर्मोदय की सहायता के बिना जीव रागादिरूप नहीं परिगम सकता, क्योंकि जब जीव में इष्टानिष्ट बुद्धिपूर्वक या उसके बिना स्वयं ही रागादिभाव रूप परिणमता है, तब ही कर्मोदय उसमें स्वयं निमित्त हो जाता है । अब रही दूसरे विकल्प की वात सो यह कहना तो ठीक है कि जब कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होता है, तब रागादि का स्वयं प्रभाव हो जाता है; परन्तु कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होता कैसे है, इसकी मीमांसा की जाती है, तब स्वयं ही मोक्षमार्ग आत्मपुरुष को मुख्यता मिल जाती है, इसलिये सिद्धान्तरूप में यही मान लेना चाहिये कि यह जीव स्वयं ही परनिरपेक्ष रागादिभावरूप से परिणमता है और कर्मोदय उसमें स्वयं ही असद्भूत व्यवहारनय से निमित्तपने को प्राप्त हो जाते हैं ।
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मुख्यता और गौरणता विवक्षा में होती है, वस्तु में नहीं :- स० पृ० ६५ में (ख) विभाग के अन्तर्गत समीक्षक ने कहीं पर निमित्तकारण की मुख्यता की और कहीं पर उपादान कारण की मुख्यता की बात लिखी है सो वह यह भूल जाता है, कि मुख्यता या गौरणता विवक्षा में करती 'हुआ है, वस्तु में नहीं, कारण कि कार्य-कारणभाव की दृष्टि से देखने पर प्रत्येक वस्तु स्वयं ही अपने कार्य को करती है और वाह्य पदार्थ, एक काल प्रत्यासत्तिवश प्रसद्भूत व्यवहारनय से निमित्त होता है । आगे अपने अभिप्राय को सिद्ध करने के लिये १, २ र ३ क्रमांक के अन्तर्गत जो उसने उदाहरण