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कर पाता है कि शुद्ध श्रात्मानुभूति पर्याय में राग के रहते हुए भी, चौथे में होती है या ७ वें में होती है या ११ वे में होती हैं। कोई कहता है कि चौथे में होती है, कोई कहता है कि ७ वें में होती है और कोई कहता हैं कि ११ वें में होती है । समीक्षक को कम से कम इतना तो सोचना ही चाहिये कि जब चौथे में सम्यक्त्व के विरोध मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय आदि कर्मो का उदय नहीं रहा, साथ ही मिथ्यादर्शनादि श्रात्मा के परिणाम नहीं रहे और वह जीव स्वभाव का अवलम्बन भी लिए हुए है, ऐसी अवस्था में सम्यक्त्वरूप स्वभाव पर्याय की उत्पत्ति होने पर भी स्वभाव के अवलम्बन से शुद्धात्मानुभूति नहीं होवे, यह कैसे कहा जा सकता है ? समीक्षक को इसी का विचार करनाचाहिये ।
समीक्षक (ठ) विभाग के अन्तर्गत हमारे सब कथन को मान करके भी अन्त में लिखता है कि "केवल इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि" जीव ग्राप विरोधी होकर उन्हें करता हुग्रा भी पुद्गल के कर्म के सहयोग से ही उन्हें करता है, पुद्गल कर्म के सहयोग के विना कदापि नहीं करता. है ।'' इस सम्बन्ध में हम यहाँ इतना ही पूछना चाहेंगे कि पुद्गल कर्म के सहयोग का क्या अर्थ है ? (१) क्या वह यह अर्थ करता है कि आत्मा और पुद्गल कर्म दोनों मिलकर जीव में रागादि भाव को उत्पन्न करते हैं या (२) क्या वह यह अर्थ करता है कि जब जीव रागादि को उत्पन्न करता है, तब पुद्गल कर्म का उदय अवश्य रहता है ? (३) या क्या वह यह अर्थ करता है कि जीव रागादि को उत्पन्न करता है, तब एक कालप्रत्यासत्तिवश जीव ने रागादिरूप परिणाम किया, इसका पुद्गल कर्मोदय सूचक होता है, इसलिये वह निमित्त कहा जाता है ?
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पहला अर्थ तो स्वीकार नहीं किया जा सकता; क्योंकि जब जीव अपने रागादि भाव को उत्पन्न करता है, तब पुद्गल कर्म श्रपने उदय उदीरणारूप पर्याय को ही उत्पन्न करता है । कोई किसी का सहायक नहीं होता, कारण कि जहाँ अज्ञान अवस्था में जीव के रागादि की उत्पन्ति में कर्मोदय को निमित्त. कहा गया है, वहीं आस्रव अधिकार ( समयसार ) में पुद्गल के परिणामरूप मिथ्यात्व अविरति, कषाय और योग ये चारों ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्म के प्रसव के निमित्त होने से वास्तव में ग्रासव हैं और उनके ( मिथ्यात्वादि पुद्गल परिणामों के) कर्म-श्रात्रवरण के निमित्तत्व के निमित्त राग-द्वेप -मोह हैं, जो कि प्रज्ञानमय आत्म परिणाम हैं । इसलिये ( मिथ्यात्वादि पुद्गल परिणामों के) . श्रास्रवरण के निमित्तत्व के निमित्तभूत होने से राग-द्वेष ही प्रसव हैं और वे अज्ञानी के ही होते हैं यह भी कहा गया है । (स० गा० १६४ १६५ श्रात्मख्याति टीका) इससे विवक्षाभेद से उभयता निमित्त की सिद्ध होती है, यह बात समीक्षक को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये । इसलिये जहाँ पर भी प्रसद्भूत व्यवहारनय से कथन किया गया हो, वहां वह कथन असत् होते हुए भी प्रयोजनवश आगम में स्वीकार कर लिया गया है। उसे समझना चाहिये । गोम्मटसार जीवकांड में “जनपद सम्मइ ठवरणेणामे रूवे पंडुच्च ववहारे ।" इत्यादि रूप से जो सत्य के दर्स भेद किये गये हैं, वे इसी अभिप्राय से ही किये गये हैं किं यदि कोई बात असत् भी कही जाती है तो प्रयोजन के अनुसार उसे सत्य मान लिया जाता है'। श्रसद्भुत व्यवहारनय इसी अर्थ में चरितार्थ है । इस सम्बन्ध में और
विशेष क्या' खुलासा करें ?
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समीक्षक कर्योदय के सहयोग का अर्थ यदि दूसरे और तीसरे विकल्परूप स्वीकार करता है, बह हमें इष्ट है, क्योंकि जीव जब भी स्वयं रागादि विभाव परिणतिरूप परिणमता है, तब काल