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यह कथन टीका के योग्य तो नहीं है फिर भी समीक्षक ने उसे टीका योग्य बनाया है, इसका में प्राश्चर्य है। यह तो समीक्षक को ही देखना है कि मनगढन्त कल्पना द्वारा निमित्त-नैमित्तिक भाव और कर्तृकर्म भाव ने निहित अभिप्राय को हृदयंगम करने में कौनं पक्ष अवहेलना कर रहा है ? वह कि हम ।
कथन २७ का समाधान:-अकालमरणं कालमरण का स्वरूप निर्देश:- . .
इसके अन्तर्गत स० पृ० ७२ पर समीक्षक ने हमारे कर्मग्रंथ पु ० ६ की प्रस्तावना में निर्दिष्ट' "किन्त कर्म के विषय में ऐसी बात नहीं है, इसका सम्बन्ध तभी तक आत्मा में रहता हैं. जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है", इस कथन का विरोध करते हुए लिखा है कि "यह कथन प्रेयप्रेरक भावरूप कार्य कारणभाव पर विचार करने की अपेक्षा असंगत हो जाता है", सो इस सम्बन्ध में हमारा इतना ही कहना है कि न तो एक द्रव्य अपने से भिन्न द्रव्य का प्रेरक होता है और न वह प्रय ही होता है । मात्र आगम में इस प्रकार का कथनं अवश्य ही इण्टिगोचर होता है, जो इस प्रकार के वचन प्रयोग की ही विशेषता है । यदि एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य. का परमार्थ से प्रेरक मान लिया जावे तो उसका अर्थ होता है - एक द्रव्य ने दूसरे द्रव्य का कार्य किया। जो मानना "य: परिणमति स कर्ता" इस सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि जैसे प्रत्येक द्रव्य अपने अन्वये स्वभाव की अपेक्षा नित्य माना गया है, उसी प्रकार अपने परिणमन स्वभाव की अपेक्षा अनित्य ही माना गया है । यह प्रत्येक द्रव्य का स्वतः सिद्ध स्वरूप है, उसमें किसी का हस्तक्षेप नहीं । समीक्षक का अन्य सब कथन पिण्ट-पेषण मात्र होने से अंविचारितरंम्य है । ।
___ आगे स० पृ० ७५ में हमारे द्वारा स्वीकार किये गये काल और अकाल मरण को. समीक्षक, आगम 'सम्मत और युक्ति सम्मत नहीं बतलाते हुए लिखता है कि "जहाँ आयु की विषभक्षण आदि वाह्य सामग्री के वल से उंदीरणा होकर समाप्ति होती है. वह काल मरण कहलाता है।" सो उसका यह कथन इसलिए संगत नहीं है, क्योंकि जन्म और मरण जीव का होता है। इसलिये जीव की योग्यता के आधार पर जहां मरण विवक्षित होता है, वह कॉल मरणं कहलाता है, क्योंकि जीव ने स्वयं अंपनी योग्यता के आधार पर अपनी वर्तमान पर्याय को बदलः कर अपनी अगली पर्याय को ग्रहण किया। इसलिये भुज्यमान आयु कर्म का उदय आदि भी उसके अनुकूल रहता है, किन्तु जहाँ आयुकर्म के अपवर्तनपूर्वक जीव वर्तमान पर्याय को बदलकर अगली पर्याय को ग्रहण करता है, वहाँ निमिपने की अपेक्षा अकालमरण या कदलीघातमरण कहा जाता है। यह पागम व्यवस्था है। तत्वार्थत्तसूत्र के दूसरे अध्याय के अन्तिम सूत्र में अंकाल मरण की प्रायुकर्म के अपवर्तन के आधार पर ही व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है, वहाँ आत्मा की योग्यता के आधार पर अकालमरण की व्यवस्था दृष्टिगोचर नहीं होती। इसेंसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि यदि आत्मा की मात्र योग्यता के आधार पर विचार करते हैं तो वह कालमरण ही है और उसमें निमित्त होने वाले कर्म की अपवर्तनीय योग्यता के आधार पर यदि विचार करते हैं तो वही कालमरण अकालमरण कहलाता है.। इस प्रकार कालमरण और अकालमरण में आगम के अनुसार वास्तव में भेद नहीं है, यह समीक्षक को समझ लेना चाहिये। . कथन २८ का समाधान:- कार्यपने की अपेक्षा.बाह्य वस्तु. को कारण कहना असद्भूत व्यवहार ही है --- इस सम्बन्ध में स० पृ० ७७ में समीक्षक लिखता है कि "पूर्व पक्ष के अनुसार निमित्त व्यवहार उसी वस्तु में होता है, जो उपादान की कार्यरूप परिणति में सहायक