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उपसंहार ! २५. अनुमानका परोक्षप्रमाणमें अन्तर्भाव : ___ अनुमान प्रमाणवादो सभी भारतीय ताकिकोंने अनुमानको स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किया है । पर जैन ताकिकोंने उसे स्वतन्त्र प्रमाण नहीं माना । प्रमाणके उन्होंने मूलतः दो भेद माने है-(१) प्रत्यक्ष और (२) परोक्ष । हम पीछे इन दोनोंकी परिभाषाएँ अङ्कित कर आये हैं। उनके अनुसार अनुमान परोक्ष प्रमाणमें अन्तर्भूत है, क्योंकि वह अविशद ज्ञान है और उसके द्वारा अप्रत्यक्ष अर्थकी प्रतिपत्ति होती है । परोक्ष प्रमाणका क्षेत्र इतना व्यापक और विशाल है कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव और शब्द जैसे अप्रत्यक्ष अर्थके परिच्छेदक अविशद ज्ञानोंका इसी में समावेश है। तथा वैशद्य एवं अवैशबके आधार पर स्वोकृत प्रत्यक्ष और परोक्षके अतिरिक्त अन्य प्रमाण मान्य नहीं है । अर्थापत्ति अनुमानसे पृथक् नहीं :
प्राभाकर और भाट्ट मीमांसक अनुमानसे पृथक अपत्ति नामका स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं। उनका मन्तव्य है कि जहां अमुक अर्थ अमुक अर्थ के विना म होता हुआ उसका परिकल्पक होता है वहाँ अर्थापत्ति प्रमाण माना जाता है । जैसे
-पीनोऽयं देवदत्तो दिवा न भुंक्त' इस वाक्यमें उक्त 'पीनस्व' अर्थ 'भोजन' के बिना न होता हुआ 'रात्रिभोजन' को कल्पना करता है, क्योंकि दिवा भोजनका निषेध वाक्यमें स्वयं घोषित है। इस प्रकारके अर्थका बोष अनुमानसे न होकर अर्थापत्तिसे होता है। किन्तु जैन विचारक उसे अनुमानसे भिन्न स्वीकार नहीं करते । उनका कहना है कि अनुमान अन्यथानुपपन्न ( अविनाभावी ) हेतुसे उत्पन्न होता है और अर्थापत्ति अन्यथानुपपद्यमान अर्थसे । अन्यथानुपपन्न हेतु और अन्यथानुपपद्यमान अर्थ दोनों एक है-उनमें कोई अन्तर नहीं है। अर्थात् दोनों ही व्याप्तिविशिष्ट होनेसे अभिन्न हैं। डा. देवराज भी यही बात प्रकट करते हुए कहते हैं कि 'एक वस्तु द्वारा दूसरी वस्तुका भाक्षेप तभी हो सकता है जब दोनोंमें म्याप्यव्यापकभाव या व्याप्तिसम्बन्ध हो।" देवदत्त मोटा है और दिनमें खाता नहीं है, यहाँ अर्थापत्ति द्वारा रात्रिभोजनको कल्पनाको जाती है । पर वास्तवमें मोटापन भोजनका अविनाभावी होने तथा दिनमें भोजनका निषेध करनेसे वह देवदत्तके रात्रिभोजनका अनुमापक है। वह अनुमान इस प्रकार है-'देवदत्त: रात्रौ भुक्त, दिवाऽमोजिस्वे सति पीनस्वान्यथानुपपत्तेः ।' यहाँ अन्यथानुपत्तिसे अन्तर्व्याप्ति विवक्षित है, बहियाप्ति या सकलव्याप्ति नहीं, क्योंकि ये दोनों व्याप्तियाँ अव्यभिचरित नहीं हैं । अतः अर्थापत्ति और अनुमान दोनों व्याप्तिपूर्वक होनेसे एक ही हैं-पृथक्-पृथक् प्रमाण नहीं ।
१. पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, पृ० ७१