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१५८ : जैन तर्कशासमें अनुमान-विचार अनुमानका विशिष्ट स्वरूप ___ न्यायसूत्रकार अक्षपादकी 'तत्पूर्वकमनुमानन्', प्रशस्तपादको लिङ्गदर्शनारसंजायमानं लैङ्गिकम्' और उद्योतकरको 'लिंगपरामोऽनुमानम्' परिभाषाओंमें केवल कारणका निर्देश है, अनुमानके स्वरूपका नहीं। उद्योतकरको एक अन्य परिभाषा 'लैंगिकी प्रतिपत्तिरनुमानम्' में भी लिङ्गरूप कारणका उल्लेख है, स्वरूपका नहीं। दिङ्नागशिष्य शङ्करस्वामोको 'अनुमानं लिङगादर्थदर्शनम्' परिभाषामें यद्यपि कारण और स्वरूप दोनोंकी अभिव्यक्ति है, पर उसमें कारण. के रूपमें लिङ्गको सूचित किया है, लिङ्गके ज्ञानको नहीं । तथ्य यह है कि अज्ञायमान धूमादि लिङ्ग अग्नि आदिके अनुमापक नहीं हैं। अन्यथा जो पुरुष सोया हुआ है, मूच्छित है, अगृहोतव्याप्तिक है उसे भी पर्वतमें धूमके सदभाव मात्रसे अग्निका अनुमान हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है। अतः शङ्करस्वामीके उक्त अनुमानलक्षणमें 'लिंगात्' के स्थानमें 'लिंगदर्शनात्' पद होने पर ही वह पूर्ण अनुमानलक्षण हो सकता है।
जैन तार्किक अकलङ्कदेवने जो अनुमानका स्वरूप प्रस्तुत किया हैं वह उक्त न्यूनताओंसे मुक्त है । उनका लक्षण है
लिङ्गारसाध्याविनामावाभिनिबोधैकलक्षणात् ।
लिङ्गिधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः ॥ इसमें अनुमानके साक्षात्कारण-लिङ्गज्ञानका भी प्रतिपादन है और उसका स्वरूप भी लिङ्गिधीः' शब्दके द्वारा निर्दिष्ट है। अकलङ्कने स्वरूपनिर्देश में केवल 'धीः' या 'प्रतिपत्ति नहीं कहा, किन्तु 'लिनिधीः' कहा है, जिसका अर्थ है साध्यका ज्ञान; और साध्यका ज्ञान होना ही अनुमान है । न्यायप्रवेशकार शङ्करस्वामीने साध्यका स्थानापन्न 'अर्थ' का अवश्य निर्देश किया है। पर उन्होंने कारणका निर्देश अपूर्ण किया है, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है । अकलङ्कके इस लक्षणकी एक विशेषता और भी है। वह यह कि उन्होंने 'तत्फलं हानादिबुद्धयः' शब्दों द्वारा अनुमानका फल भी निर्दिष्ट किया है । सम्भवतः इन्हीं सब बातोंसे उत्तरवर्ती सभी जैन ताकिकोंने अकलङ्ककी इस प्रतिष्ठित और पूर्ण अनुमान-परिभाषाको हो अपनाया। इस अनुमानलक्षणसे स्पष्ट है कि वही साधन अथवा लिङ्ग लिङ्गि ( साध्य-अनुमेय) का गमक हो सकता है जिसके अविनाभावका निश्चय है। यदि उसमें अविनाभावका निश्चय नहीं है तो वह साधन नहीं है, भले ही उसमें तीन या पांच रूप भी विद्यमान हों। जैसे 'वज्र लोह लेख्य है, क्योंकि पार्थिव है, काष्ठ की तरह' इत्यादि हेतु तीन रूपों और पांच रूपोंसे सम्पन्न होने पर भी अविनाभावके अभावसे सहेतु नहीं हैं, अपितु हेत्वाभास हैं और इसीसे वे अपने साध्योंके अनुमापक नहीं माने जाते। इसी प्रकार 'एक मुहुर्त बाद शकटका उदय होगा,