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२५६ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार है । सम्भवतः इसी कारण उन्होंने मात्र लिङ्गों, लिङ्गरूपों और लिङ्गाभासोंका निरूपण किया है । उसके और भी कोई घटक है, इसका कणादने कोई उल्लेख नहीं किया। उनके भाष्यकार प्रशस्तपादने अवश्य प्रतिज्ञादि पांच अवयवोंको उसका घटक प्रतिपादित किया है।
तर्कशास्त्रका निबद्ध रूपमें स्पष्ट विकास अक्षपादके न्यायसूत्रमें उपलब्ध होता है। अक्षपादने अनुमानको ‘अनुमान' शब्दसे ही उल्लेखित किया तथा उसकी कारणसामग्री, भेदों, अवयवों और हेत्वाभासोंका स्पष्ट विवेचन किया है। साथ ही अनुमानपरीक्षा, वाद, जल्प, वितण्डा, छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे अनुमानसहायक तत्त्वोंका प्रतिपादन करके अनुमानको शास्त्रार्थोपयोगी और एक स्तर तक पहुँचा दिया है। वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, उदयन और गङ्गेशने उसे विशेष परिष्कृत किया तथा व्याप्ति, पक्षधर्मता, परामर्श जैसे तदुपयोगी अभिनव तत्त्वोंको विविक्त करके उनका विस्तृत एवं मूक्ष्म निरूपण किया है । वस्तुतः अक्षपाद और उनके अनुवर्ती ताकिकोंने अनुमानको इतना परिष्कृत किया कि उनका दर्शन न्याय ( तक -- अनुमान ) दर्शनके नामसे ही विश्रुत हो गया। ___ असंग, वसुबन्धु, दिङनाग, धर्मकीर्ति प्रभृति बौद्ध ताकिकोंने न्यायदर्शनकी समालोचनापूर्वक अपनी विशिष्ट और नयो मान्यताओंके आधारपर अनुमानका सक्षम और प्रचुर चिन्तन प्रस्तुत किया है । इनके चिन्तनका अवश्यम्भावी परिणाम यह हुआ कि उत्तरकालीन समग्र भारतीय तर्कशास्त्र उससे प्रभावित हुआ और अनुमानकी विचारधारा पर्याप्त आगे बढ़नेके साथ सूक्ष्म-मे-सूक्ष्म एवं जटिल होती गयी। वास्तवमें बौद्ध ताकिकोंके चिन्तनने तर्क में आयो कुण्ठाको हटाकर और सभी प्रकार के परिवेशोंको दूर कर उन्मुक्तभावसे तत्त्वचिन्तनकी क्षमता प्रदान की। फलतः सभी दर्शनों में स्वीकृत अनुमानपर अधिक विचार हुआ और उसे महत्त्व मिला।
ईश्वरकृष्ण, युक्तिदीपिकाकार, माठर, विज्ञानभिक्षु आदि सांख्यविद्वानों, प्रभाकर, कुमारिल, पार्थसारथि प्रभृति मोमांसकचिन्तकोंने भी अपने-अपने ढंगसे अनुमानका चिन्तन किया है। हमारा विचार है कि इन चिन्तकोंका चिन्तन-विषय प्रकृति-पुरुष और क्रियाकाण्ड होते हुए भी वे अनुमान-चिन्तनसे अछूते नहीं रहे । श्रुतिके अलावा अनुमानको भी इन्हें स्वीकार करना पड़ा और उसका कम-वढ़ विवेचन किया है।
जैन विचारक तो आरम्भसे हो अनुमानको मानते आये हैं। भले ही उसे 'अनुमान' नाम न देकर 'हेतुवाद' या 'अभिनिबोध' संज्ञासे उन्होंने उसका व्यवहार किया हो। तत्त्वज्ञान, स्वतत्त्वसिद्धि, परपक्षदूषणोद्भावनके लिए उसे स्वीकार करके उन्होंने उसका पर्याप्त विवेचन किया है। उनके चिन्तनमें जो विशेषताएं उपलब्ध होती हैं उनमें कुछका उल्लेख यहां किया जाता है :