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देतु-विमर्श : २१९ नुपलब्धि' विधिरूप साध्यको सिद्ध करनेमें तीन प्रकारकी कही गयी है-(१) विरुद्ध कार्यानुपलब्धि, ( २ ) विरुद्धकारणानुपलब्धि और ( ३ ) विरुद्धस्वभावानुपलब्धि । इस तरह माणिक्यनन्दिने ६ + ६ +७+३ = २२ हेतुभेदोंका सोदाहरण निरूपण किया है। विद्यानन्दकी तरह परम्पराहेतुओंकी भी उन्होंने सम्भावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओंमें ही अन्तर्भाव करनेका इंगित किया है। माणिक्यनन्दिने२ अकलंककी भाँति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर इन हेतुओंको पृथक माननेकी आवश्कताको भी सयुक्तिक बतलाया है।
प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डमें और लघु अनन्तवीर्यने प्रमेयरत्नमालामें माणिक्यनन्दिके व्याख्याकार होनेसे उनका ही समर्थन एवं विशद व्याख्यान किया है।
देवसूरिने विधिसाधक तीन अनुपलब्धियोंके स्थान में पांच अनुपलब्धियां बतायी हैं तथा निषेधसाधक विरुद्धोपलब्धिके छह भेदोंकी जगह सात भेद प्रतिपादित किये हैं। शेष निरूपण माणिक्यनन्दि जैसा ही है । विद्यानन्दकी तरह विरुद्धोपलब्धिके सोलह परम्पराहेतुओंका भी उन्होंने निरूपण किया और इस निरूपण को अभियुक्तों द्वारा अभिहित बतलाया है । इसके साथ ही अविरुद्धानुपलब्धिके प्रतिपादक सूत्र में साक्षात् हेतु सात और उसको व्याख्यामें परम्पराहेतु ग्यारह कूल अठारह प्रकारोंका भी कथन किया है। उनका यह प्रतिपादन विद्यानन्दकी प्रमाणपरीक्षा और तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकका आभारी है।
वादिराजका हेतुभेदविवेचन यद्यपि अकलंक और विद्यानन्दसे प्रभावित है किन्तु उनका वैशिष्ठय भी उसमें परिलक्षित होता है। उन्होंने संक्षेपमें १. विरुद्धानुपलब्धिः विधौ त्रेधा विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिमेदात् ।
-५० मु० ३।८६ । २. वहो, ३६०-६४ । ३. विरुद्धानुपलब्धिस्तु विधिप्रतीती पंचधेति । विरुद्धीपलब्धिस्तु प्रतिषेधप्रतिषेधपपिपत्तौ सप्तप्रकारेति ।
-प्र० न० त० ३९९, ७९ । ४. परम्परया विरोधाश्रयणेन त्वनेकप्रकारा विरुद्धोपलब्धिः सम्भवन्ती स्वयमभियुक्तैरवगन्तव्या"इति पारम्पर्येण पेडशप्रकारा ।
--वही, स्या. रत्ना० ३१८८, पृ० ६०५। ५. इतीयमविरुद्धानुपलब्धिः सप्तप्रकारा प्रतिषेधप्रतिपत्ती सोदाहरणा सूत्रतः प्रतिषेध्यवस्तु
सम्बन्धिनां स्वमावकार्यादीनां साक्षादनुपलम्भद्वारेण प्रदर्शिता । परम्परया पुनरेषापि निपुणैर्निरूप्यमाणकादशधा सम्पद्यते । तदित्थं सूत्रोक्तः सप्तमिभेदैः सहामी मिलिता एकादशमेदा अविरुद्धानुपलब्धेरष्टादश संवृत्ता इति ।
-वही, स्या० रत्ना० २९८, पृ०६१३-६१५ । ६. प्रमाणनि०पू० ४२-५०।