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२१८ : जैन तर्कशास्त्रमें भनुमान विचार कल्पित स्वभावादि त्रिविध, नैयायिकसम्मत पूर्ववदादि त्रिविध, वैशेषिक स्वीकृत संयोग्यादि पंचविध और सांख्याभ्युपगत वीतादि त्रिविध हेतुनियमकी समीक्षा करते हुए कहा है कि जब हेतुभेदोंको यह स्पष्ट स्थिति है तो उसे केवल त्रिविष
आदि बतलाना संगत प्रतीत नहीं होता । अतः हेतुका एकमात्र प्रयोजक अन्यथानुपपन्नत्वनियमनिश्चयको ही मानना चाहिए, जिसके द्वारा सभी प्रकारके हेतुओंका संग्रह सम्भव है, त्रिविधत्वादिनियमको नहीं।
माणिक्यनन्दिको उल्लेखनीय विशेषता है कि उन्होंने अकलंक और विद्यानन्दके वाङ्मयका आलोडन करके उसमें विशकलित हेतुभेदोंको सुसम्बद्ध ढंगसे सुगम एवं सरल सूत्रोंमें निबद्ध किया है। उनका यह व्यवस्थित हेतुभेदनिबन्धन उत्तरवर्ती प्रभाचन्द्र, लघु अनन्तवीर्य, देवसूरि, हेमचन्द्र प्रभृति ताकिकोंके लिए पथप्रदर्शक तथा आधार सिद्ध हुआ है। यहां उसे न देनेपर एक न्यूनता रहेगी। अतः उसे दिया जाता है। ____ अकलंकको तरह माणिक्यनन्दिने' भी आरम्भमें हेतुके मूल दो भेद स्वीकार किये हैं-(१) उपलब्धि और ( २ ) अनुपलब्धि। तथा इन दोनोंको विधि और प्रतिषेध उभयका साधक बतलाया है। और इसलिए दोनोंके उन्होंने दो-दो भेद कहे है-उपलब्धिके (१) अविरुद्धोपलब्धि और ( २ ) विरुद्धोपलब्धि तथा अनुपलब्धिके ( १ ) अविरुद्धानुपलब्धि और ( २) विरुद्धानुपलब्धि । अविरुद्धोपलब्धिके छह भेद हैं-( १ ) व्याप्य, (२) कार्य, (३) कारण, (४) पूर्वचर, (५) उत्तरचर और (६) सहचर । विरुद्धोपलब्धिके भी अविरुद्धोपलब्धिकी तरह छह भेद हैं । वे ये हैं-(१) विरुद्धव्याप्य, (२) विरुद्ध कार्य, (३) विरुद्ध कारण, ( ४ ) विरुद्धपूर्वचर, ( ५ ) विरुद्धउत्तरचर और ( ६ ) विरुद्धसहचर । इसीप्रकार अनुपलब्धिके प्रथम भेद अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेधरूप साध्यको सिद्ध करनेकी अपेक्षा सात प्रकारको कही है--(१) अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, (२) व्यापकानुपलब्धि, ( ३ ) कार्यानुपलब्धि, ( ४ ) कारणानुपलब्धि, (५) पूर्वचरानुपलब्धि, (६) उत्तरचरानुपलब्धि और (७) सहचरानुपलब्धि । विरुद्धा
१. परीक्षामु० ३१५७-५८ । २. स हेतुढेधा उपलब्ध्यनुपलब्धिमेदात् । उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च । अविरुद्धोलब्धिर्विधौ पेढा व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् ।
-प० मु० ३१५७-५६ । ३. विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथेति ।
-वही, ३।७१। ४. अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलम्भमेदादिति । वही, १७८ ।