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हेतु-विमर्श : २१. विधिप्रतिषेधकप्रतिषेध साधनहेतु ( अभूत-अभूत)
जिनमें साध्य निषेध (अभूत-अभाव) रूप हो और साधन भी निषेध (अभूतअभाव ) रूप हो उन्हें विधिप्रतिषेधक प्रतिषेध (भमत-अमत) हेतु कहते हैं । यथा
(१) इस शवशरीरमें बुद्धि नहीं है, क्योंकि चेष्टा, वार्तालाप, विशिष्टआकारकी उपलब्धि नहीं होती। यह विधिसाधक प्रतिषेधसाधन कार्यानुपलब्धि हेतु है ।
(२) इसके प्रशम आदि नहीं हैं, क्योंकि तत्त्वार्थश्रद्धान उपलब्ध नहीं होता। यह कारणानुपलब्धि है।
(३ ) यहां शिशपा नहीं है, क्योंकि वृक्ष नहीं है। यह व्यापकानुपलब्धि है।
( ४ ) इसके तत्त्वज्ञान नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन नहीं है। यह सहचरानुपलब्धि है।
(५) एक मुहूर्तके अन्त में शकटका उदय नहीं होगा, क्योंकि कृत्तिकाका उदय नहीं है। यह पूर्वचरानुपलब्धि है ।
(६ ) एक मुहूर्त पहले भरणिका उदय नहीं हुआ, क्योंकि कृत्तिकाका उदय अनुपलब्ध है । यह उत्तरचरानुपलब्धि है।
इसी प्रकार विद्यानन्दने कारणकारणाद्यनुपलब्धि, व्यापकव्यापकानुपलब्धि आदि परम्पराप्रतिषेधसाधकप्रतिषेधसाधन हेतुओंका भी संकेत किया है। तथा इस समस्त निरूपणके अन्तमें अपने कथनको सम्पुष्टि के लिए इन सब हेतुभेदोंके संग्राहक पूर्वाचार्योंके सात श्लोकोंको प्रस्तुत किया है। इसके अनन्तर उन्होंने बौद्ध
१. प्र०प० पृष्ठ ७४ । २. वही, पृ० ७४ । ३. स्यात्कार्य कारणं व्याप्यं प्राकसहोत्तरचारि च । लिग तल्लक्षणव्याप्तेभूतं भूतस्य साधकम् ॥ षोढा विरुद्धकार्यादि साक्षादेवांपवणितम् । लिंगं भूतमभूतस्य लिंगलक्षणयोगतः ॥२।। पारम्पत्तुि कार्य स्यात् कारणं व्याप्यमेव च । सहचारि च निर्दिष्टं प्रत्येकं तच्चतुर्विधम् ॥३॥ कारणाद्विष्ठकार्यादिभेदेनोदाहृतं पुरा। यथा षोडशमेदं स्यात् द्वाविंशतिविधं ततः ॥४॥ लिंगं समुदित शेयमन्यथानुपपत्तिमत् । तथा मूतमभूतस्याप्यूधमन्यदीपोदृशम् ।। ५ ॥ अभूतं भूतमुन्नीतं भूतस्यानेकधा बुधैः । तथाऽभूतमभूतस्य यथायोग्यमुदाहरेत् ॥६॥ बहुधाप्येवमाख्यातं संक्षेपेण चतुर्विधम् । अतिसंक्षेपतो द्वेधोपलम्भानुपलम्मभृत् ॥७॥
-वही, पृ० ७४-७५ । ४. वही, पृ० ७५ । २८