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२१२ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान- विचार
( १ ) कार्य हेतु यहाँ अग्नि है, क्योंकि धूम है । कार्यकार्य आदि परम्परा हेतुओं का इसी में अन्तर्भाव किया गया है ।
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( २ ) कारणहेतु यहां छाया है, क्योंकि छत्र है । कारणकारण आदि परम्पराका रणहेतुओं का इसी में अनुप्रवेश है । स्मरण रहे कि न तो केवल अविशिष्ट कारणको और न अन्तिम क्षण प्राप्त कारणको कारणहेतु कहा जाता है, जिससे प्रतिबन्धके सद्भाव और कारणान्तरकी विकलतासे वह व्यभिचारी हो तथा दूशरे क्षणमें कार्यके प्रत्यक्ष हो जानेसे अनुमान निरर्थक हो, किन्तु जो कार्य - का अविनाभावी निर्णीत है तथा जिसकी सामर्थ्य किसी प्रतिबन्धकसे अवरुद्ध नहीं है और न वांछनीय सामग्रीकी विकलता है, ऐसे विशिष्ट कारणको हेतु माना गया है ।
व्याप्य, २ सहचर, ३ पूर्व -
( ३ ) अकार्यकारण --इसके चार भेद हैंचर और ४ उत्तरचर ।
१. व्याप्य हेतु - जहाँ व्याप्यसे व्यापकका है । जैसे
अनुमान होता है वह व्याप्यहेतु - समस्त पदार्थ अनेकान्तस्वरूप हैं, क्योंकि सत् हैं, अर्थात् वस्तु हैं । २. सहचर हेतु — जहाँ एक सहभावी से दूसरे सहभावीका अनुमान किया जाता है वह सहचर है । जैसे—अग्निमें स्पर्श है, क्योंकि रूप है । स्पर्श रूपका न कार्य है न कारण, क्योंकि दोनों सर्वत्र सर्वदा समकालवृत्ति होनेसे सहचर प्रसिद्ध हैं । ध्यान रहे, वैशेषिकोंके संयोगी और एकार्थसमवायी हेतु विद्यानन्दके मतानुसार साध्यसमकालीन होनेसे सहचर हैं । जैसे समवायी कारणहेतु है, वह उससे पृथक नहीं है ।
३. पूर्व चरहेतुतु — शकटका उदय होगा, क्योंकि कृत्तिकाका उदय है । पूर्वपूर्वचरादि परम्परापूर्व चरहेतुओंका इसी में समावेश है ।
४. उत्तरचरहेतु—भरणिका उदय हो चुका है, क्योंकि कृत्तिकाका उदय है । उत्तरोत्तरचरादि परम्पराउत्तरचरहेतुओंका इसीके द्वारा संग्रह हो जाता है । ये छह ( २ + ४ = ) हेतु' विधिरूप साध्यको सिद्ध करनेसे विधिसाधन ( भूतभूत ) हेतु कहे जाते हैं ।
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प्रतिषेधरूप साध्यको सिद्ध करनेवाले हेतु तीन हैं । - ( १ ) विरुद्ध कार्य, ( २ ) विरुद्धकारण और ( ३ ) विरुद्ध कार्यकारण ।
१. तदेतत्साध्यस्य विधौ साधनं षड्विधमुक्तम् ।
-प्रमाणप० पृ० ७३ ।
२. प्रतिषेधे तु प्रतिषेध्यस्य विरुद्धं कार्य विरुद्धं कारणं विरुद्ध कार्यकारणं चेति
-प्र० प० पृष्ठ ७३ ।