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हेतु-विमर्श : २१३
( २ ) विरुद्धकार्य हेतु — यहां शीतस्पर्श नहीं हैं, क्योंकि धूम है । स्पष्ट है कि शीतस्पर्श से विरुद्ध अनल है, उसका कार्य धूम है। उसके सद्भावसे शीतस्पर्शका अभाव सिद्ध होता है ।
( २ ) विरुद्धकारण- — इस पुरुषके असत्य नहीं है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान है । प्रकट है कि असत्यसे विरुद्ध सत्य है, उसका कारण सम्यग्ज्ञान है । रागद्वेषरहित यथार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान है । वह उसके किसी यथार्थकथन आदिसे सिद्ध होता हुआ सत्यको सिद्ध करता है और वह भी सिद्ध होता हुआ असत्यका प्रतिषेध करता है ।
( ३ ) विरुद्ध कार्यकारण - इसके चार भेद हैं - १. विरुद्धव्याप्य, २. विरुद्धसहचर, ३. विरुद्धपूर्वचर और ४. विरुद्ध उत्तरचर ।
१. विरुद्धव्याप्य - यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है । यहाँ निश्चय ही शीतस्पर्शसे विरुद्ध अग्नि है और उसका व्याप्य उष्णता है ।
२. विरुद्ध सहचर — इसके मिथ्याज्ञान नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन है । यहाँ मिथ्याज्ञान से विरुद्ध सम्यग्ज्ञान है और उसका सहचर ( सहभावी ) सम्यग्दर्शन है ।
३. विरुद्धपूर्व चर - मुहूर्त्तान्तमें शकटका उदय नहीं होगा, क्योंकि रेवतीका उदय है | यहाँ शकटोदयसे विरुद्ध अश्विनीका उदय है और उसका पूर्वचर रेवतीका उदय है |
४ – बिरुद्धोत्तरचर – एक मुहूर्त्त पूर्व भरणिका उदय नहीं हुआ, क्योंकि पुष्यका उदय है । भरणिके उदयसे विरुद्ध पुनर्वसुका उदय है और उसका उत्तरचर पुष्यका उदय है ।
ये छह ' साक्षात्प्रतिषेध्यसे विरुद्ध कार्यादिहेतु विधिद्वारा प्रतिषेधको सिद्ध करनेके कारण प्रतिषेधसाधन ( अभूतभूत ) हेतु उक्त हैं ।
कारणव्यापक
परम्परासे होनेवाले कारणविरुद्धकार्य, व्यापक विरुद्ध कार्य, विरुद्ध कार्य, व्यापककारणविरुद्ध कार्य, कारणविरुद्धकारण, व्यापक विरुद्धकारण, कारणव्यापक विरुद्ध कारण और व्यापककारणविरुद्धकारण तथा कारणविरुद्धव्याप्यादि और कारणविरुद्धसहचरादि हेतुओं का भी विद्यानन्दने संकेत किया है । वे इस प्रकार हैं
१. तान्येतानि साक्षात्प्रतिषेध्यविरुद्धकार्यादीनि लिंगानि विधिद्वारेण प्रतिषेघसाधनानि षडभिहितानि ।
-प्र० प० पृ० ७३ ।
२. परम्परया तु कारणविरुद्धकार्य व्यापकविरुद्धकार्य कारणव्यापकविरुद्धकार्य व्यापककारणविरुद्धकार्य ...वक्तव्यानि ।
वही, पृ० ७३ ।