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अवयव-विमर्श : १८५
श्यकता एवं उपयोगिता है। वाचस्पति' कहते हैं कि प्रतिज्ञादि चार अवयवोंके द्वारा हेतुके केवल तीन अथवा दो रूपोंका प्रतिपादन होता है, अबाधितविषयत्व
और असत्प्रतिपक्षत्वका नहीं और अविनाभाव पांच अथवा चार रूपोंमें समाप्त होता है। अतः अबाधितविषयत्व तथा असत्प्रतिपक्षत्व इन दो रूपोंका संसूचन करनेके लिए निगमन आवश्यक है।
प्रशस्तपादने निगमन शब्दके स्थानमें 'प्रत्याम्नाय' शब्द रखा है और उसका स्वरूप प्रायः वही प्रस्तुत किया है जो न्यायपरम्परामें निगमनका है। पर ध्यान देनेपर उसमें कुछ वैशिष्ठय परिलक्षित होता है। उनका मन्तव्य है कि अनुमेयरूपसे जिसका उद्देश्य किया गया है और जिसका निश्चय नहीं हुआ है, उसका दूसरों (प्रतिपाद्यों ) को निश्चय करानेके लिए प्रतिज्ञाका पुनः अभिधान करना प्रत्याम्नाय है। जिन प्रतिपाद्योंने हेत्वादि चार अवयववाक्योंसे अनुमेय-प्रतिपत्तिकी शक्ति तो प्राप्त कर ली है, पर उसका निश्चय नहीं, उन्हें प्रत्याम्नायवाक्यसे ही अनुमेयका निश्चय कराया जाता है। इसके बिना अन्य सभी अथवा प्रत्येक अवयव अनुमेयका निश्चय नहीं करा सकते । अतः प्रत्याम्नायवाक्यके कहे जानेपर ही पंचावयवरूप परार्थानुमानवाक्य पूर्ण होता है और वही परार्थानुमितिमें सक्षम है।
बौद्ध और मीमांसक उपनयकी तरह निगमनको भी नहीं मानते । अतः उनके न्याय-ग्रन्थोंमें उसका समर्थन न होकर निरास ही उपलब्ध होता है। धर्मकीर्तिने तो उपनय और निगमन दोनोंको असाधनांग कहकर उनके कहने पर असाधनांग निग्रहस्थान बतलाया है। सांख्यविद्वान् युक्तिदीपिकाकार निगमनको मानते हैं। पर माठर उसे स्वीकार नहीं करते । ___जैन तर्कशास्त्रमें निगमनका स्पष्ट कथन माणिक्यनन्दिने आरम्भ किया है। उनके बाद देवसूरि, हेमचन्द्र आदिने भी उसका निरूपण किया है। माणिक्यनन्दिने
१. चतुर्भिः खल्ववयवैहेतोस्त्रीणि रूपाणि द्वे वा प्रतिपादिते न त्वबाधितविषयत्वासत्पति
पक्षत्वे । पंचसु वा चतुर्पु वा रूपेषु हेतोरविनाभावः परिसमाप्यते, तस्मादबाधितत्वासत्प्रतिपक्षितत्वरूपद्यसंसूचनाय निगमनम् ।
-न्या० ता०, ११११३६, पृ० ३०१-३०२ । २. अनुमेयत्वेनोद्दिष्टे चानिश्चिते च परेषां निश्चयापादनार्थ प्रतिशायाः पुनर्ववचनं प्रत्या
म्नायः । “न घेतस्मिन्नसति परेषामवयवानां समस्तानां व्यस्तानां वा तदर्थवाचकत्वमस्ति । तस्मात् पंचावयवेनैव"।
-प्रश० भा० पृ० १२४-१२७ । ३. प्रतिशायास्तु निगमनम् ।
-परीक्षामु० २५१।
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