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१८६ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान- विचार
प्रतिज्ञाके दुहरानेको निगमन कहा है। प्रभाचन्द्र' उस वाक्यको निगमन बतलाते हैं जिसके द्वारा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय चारोंको साध्यरूप एक अर्थ में साधकरूपसे सम्बन्धित किया जाता है । अनन्तवीर्यको इन दोनों परिभाषाओं में कुछ कमी प्रतीत हुई है और जो युक्त भी है। वे उसमे 'पक्षधर्मविशिष्ट रूपसे' इतना विशेषण और जोड़ देना आवश्यक समझते हैं । अर्थात् उनकी दृष्टिसे साध्यधर्मत्रिशिष्टरूपसे प्रतिज्ञाका प्रदर्शन ( दुहराना ) निगमन है । जैसे 'धूमवाला होनेसे यह अग्निवाला है ।' देवसूरि और हेमचन्द्रका निगमन-स्वरूप माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र जैसा ही है । धर्मभूषण ने " साधनको दुहराते हुए साध्यके निश्चयरूप वचनको निगमन कहा है । चारुकीर्तिने उपनयकी तरह निगमनका भी लक्षण नव्यपद्धतिसे ग्रथित किया है |
ऐसा प्रतीत होता है कि अन्तिम दो अवयवों पर जैन तार्किकोंने उतना बल नहीं दिया जितना आरम्भके अवयवों पर दिया है । यही कारण है कि माणिक्यनन्दि से पूर्व इनपर विवेचन प्राप्त नहीं होता। इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि पंचावयवकी मान्यता मुख्यतया नैयायिकों तथा वैशेषिकों को है और वह वाद तथा शास्त्र क्षेत्र में समान रूपसे स्वीकृत है । पर जैन विचारकोंने वादमें तीन या दो तथा शास्त्र में तीन, चार और पाँच अवयवोंका समर्थन करके उन्हें दो ( वाद तथा शास्त्र ) क्षेत्रों में विभक्त किया है । अतएव अन्तिम दो या तीन अवयवोंको वादापेक्षया स्वीकार न करने पर भी शास्त्रकी अपेक्षासे उनका जैन तर्क ग्रन्थोंमें स्वरूप निरूपित है।
( ६-१० ) पंच शुद्धियाँ :
भद्रबाहुने' उक्त प्रतिज्ञादि पाँच अवयवोंके अतिरिक्त उनको पाँच शुद्धियाँ
१. प्रमेयक० मा० ३।५१, पृ० ३७७ ।
२. प्रतिज्ञाया उपसंहारः साध्यधर्मविशिष्टत्वेन प्रदर्शनं निगमनम् ।
- प्रमेयर० मा० ३।४७, पृ० १७३ |
३. प्र० न० त० ३।४८, पृ०५६९ ।
४. प्र० मी० २।१।१५, पृ० ५३ ।
५. साधनानुवादपुरस्सरं साध्यनियमवचनं निगमनम् । तस्मादग्निमानेवेति ।
- न्या० दी० पृ० १११ ।
६. पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यता निरूपितहेतुज्ञानव्याप्यत्वविशिष्टसाध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रकारताशालिबोधजनकवाक्यत्वं निगमनत्वमित्यर्थः ।
- प्रमेय रत्नालं० ३।५१, पृ० १२१ । ७. प्रमेयर० मा० ३।४७, पृ० १७३ | ८. परीक्षामु० ३ | ४६ । प्र० न० त० ३ | ४२ । ६. दशवै० नि० गा० ४९, ५० ।