________________
१४४ : जैन तर्कशाबमें अनुमान-विचार तने' लिखा है कि हेतुके कथनपूर्वक प्रतिज्ञाका पुनः अभिधान करना अर्थात् दुह
राना निगमन है । इसे वात्स्यायन उदाहरणपूर्वक स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार हेतुकथनके उपरान्त साधर्म्यप्रयुक्त अथवा वैधर्म्यप्रयुक्त उदाहरणका उपसंहार किया जाता है उसी प्रकार 'उत्पत्तिधर्मक होनेसे शब्द अनित्य है' इस तरह हेतुकथनपर्वक प्रस्तावित पक्षको दुहराना निगमन कहलाता है। वे निगमन-साध्य अर्थको बतलानेके लिए साधर्म्य और वैधयं प्रयुक्त अनुमानप्रयोजक वाक्योंके विश्लेषणके साथ कहते हैं-'शब्द अनित्य है' यह प्रतिज्ञा है, 'उत्पत्तिधर्मा होनेसे' यह हेतु है, 'उत्पत्तिधर्मा स्थाली आदि द्रव्य अनित्य होते हैं' यह उदाहरण है, 'वैसा ही यह शब्द है' यह उपनय है, 'इसलिए उत्पत्तिधर्मा होनेसे शब्द अनित्य है' यह निगमन है। यह तो साधर्म्य प्रयुक्त अनुमानप्रयोजक वाक्यका उदाहरण है। वैधयंप्रयुक्त वाक्यका उदाहरण इस प्रकार है-'शब्द अनित्य है', 'क्योंकि वह उत्पत्ति धर्मा है', 'अनुत्पत्तिधर्मा आत्मादि द्रव्य नित्य देखा गया है', 'यह शब्द वैसा अनुत्पत्तिधर्मा नहीं है', 'इसलिए उत्पत्तिधर्मा होनेसे शब्द अनित्य है' । तात्पर्य यह कि पंचावयववाक्यमें पाँचों (प्रतिज्ञासे निगमनतक) अवयव मिलकर परस्पर सम्बद्ध रहते हुए ही अनुमेयको प्रतिपत्ति कराते हैं। निगमनका काम है कि वह यह दिखाये कि पहले कहे गये चारों अवयववाक्य एकमात्र अनुमेयको प्रतिपत्ति कराने की सामर्थ्य से सम्पन्न हैं । उद्योतकर" और वाचस्पति मिश्रने उपनय और निगमनको अवयवान्तर स्वीकार न करनेवालोंकी मीमांसा करते हुए उन्हें पृथक् अवयव माननेकी आवश्यकताका प्रदर्शन किया है। उनका मत है कि दृष्टान्तगत धर्मकी अव्यभिचारिताको सिद्ध करके उसके द्वारा साध्यगत धर्मको तुल्यताका बोध करानेके लिए उपनयको और प्रतिज्ञात अर्थके प्रमाणों ( चार अवयववाक्यों) से उपपन्न हो जानेपर साध्यविपरीतका प्रसंग निषेध करनेके लिए निगमनकी आव
१. हत्वपदेशात्प्रतिशायाः पुनर्वचनं निगमनम् ।
-न्यायसू० १।१।३९ । २. न्यायभा० १।१।३६, पृ० ५२ । ३. वही, ११११३६, पृ० ५२ । ४. सर्वेषामेकार्थप्रतिपत्तौ सामर्थ्यप्रदर्शनं निगमनमिति ।
-न्यायभा० १११।३९, पृ० ५३ । ५. दृष्टान्तगतस्य धर्मस्याव्यभिचारित्वे सिद्धे तेन साध्यगतस्य तुल्यधर्मता एवं चायं कृतक
इति ।
प्रतिशाविषयस्यार्थस्याशेषप्रमाणोपपत्तौ साध्यविपरीतप्रसंगप्रतिषेधार्थ यत् पुनरभिधानं तत् निगमनमिति ।
-न्यायवा० ११११३८, ३६, पृ० १३७ । ६. न्यायवा० ता० टी० ११११३८, ३६, पृ० २६९-३०१ ।