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भवयव-विमर्श : १८५
दुहरानेका नाम उपनय है । प्रभाचन्द्रने उनके प्रतिपादनका बहुत सुन्दर व्याख्यान किया है। उन्होंने लिखा है कि जिसके द्वारा साध्यधर्मीमें साध्याविनाभाविरूपसे अर्थात् पक्षधर्मरूपसे विशिष्ट हेतु उपदर्शित हो वह उपनय कहा जाता है । यथार्थ में उपनयवाक्यके द्वारा दृष्टान्त सादृश्यसे हेतुमें साध्याविनाभावित्वरूप पक्षधर्मताको पुष्टि की जाती है । अतएव उपनयको उपमान भी कहा गया है । इसका उदाहरण है-'उसी प्रकार यह धूमवाला है' । अनन्तवीर्यका भी यही मत है। देवसूरि माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र का ही अनुगमन करते है । हेमचन्द्रने' उपनयके स्वरूपका प्रतिपादक सूत्र तो देवसूरि जैसा ही दिया है । पर उसकी वृत्तिमें उन्होंने कुछ विशेषता व्यक्त की है। कहा है कि जिस पक्षधर्म-साधनकी दष्टान्तधर्मीमें व्याप्ति ( साध्याविनाभाव । को जान लिया है उसका साध्यधर्मीमें उपसंहार करना उपनय है और वह वचनरूप है । जैसे 'और धूमवाला यह है' । चारुकोतिका' उपनयलक्षण नव्यन्यायके परिवेशमें प्रथित होनेसे उल्लेखनीय है । ध्यान रहे न्यायपरम्परामें जहां साध्य ( पक्ष ) के उपसंहारको उपनय कहा है वहां जैन न्यायमें पक्षमें हेतुके उपसंहारको उपनय बतलाया गया है। वास्तवमें उपनयका प्रयोजन प्रयुक्त हेतुमें साध्याविनाभावित्वको सम्पुष्टि करना है । अतः पक्षनिष्ठत्वेन हेतुके पुनः अभिधानको उपनय कहा जाना युक्त है। ( ५ ) निगमन :
परार्थानुमानका अन्तिम अवयव निगमन है । निगमनका स्वरूप देते हुए गौत
१. उपनया हि साध्याविनाभावित्वेन विशिष्टो साध्यधर्मिण्युपनीयते येनोपदय॑ते हेतुः
सोऽभिधीयते।
-प्रमेयक० मा० ३।५०, पृ० ३७७ । २. उपनय उपमानम् , दृष्टान्तमिसाध्यमिणोः सादृश्यात् ।..
-प्रमेयक० म० ३१३७, पृष्ठ ३७४ । ३. हेतोः पक्षधर्मतयोपसंहार उपनय इति ।
-प्रमेयर० मा० ३।४६, पृ० १७२ । ४. हेतोः साध्यमिण्युपसंहरणमुपनयः इति । उपनीयते साध्याविनामावित्वेन विशिष्टो हेतुः साध्यमिण्युपदश्यते येन स उपनय इति व्युत्पत्तः ।
-प्र० न० त० स्या०र०३१४७, पृ०५६९। ५. धर्मिणि साधनस्योपसंहार उपनयः ।
-प्र० मी० २।१।१४, पृ० ५३ । ६. दृष्टान्तर्मिणि विसृतस्य साधनधर्मस्य साध्यधर्मिणि यः उपसंहारः स उपनयः उपसंहियतेऽनेनोपनीयतेऽनेनेति वचनरूपः, यथा धूमवांश्चायमिति ।
-वही, २।१११४, पृ० ५३ । ७. प्र. रत्नालं० ३०५०, पृ० १२१ ।