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१८२ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार
बौद्धोंने उपनयको स्वीकार नहीं किया । अतः उनके तर्क ग्रन्थोंमें उसका विवेचन नहीं है । पर हाँ, धर्मकीतिने हेतुका प्रयोग साधर्म्य और वैधर्म्यरूपसे द्विविध बतलाकर उसीके स्वरूपमें उदाहरण और उपनयको अन्तर्भूत कर लिया है। उनके हेतुका प्रयोग इस प्रकार होता है-'जो सत् है वह सब क्षणिक है । जैसे घटादिक ।
और सत् शब्द है। तथा क्षणिकता न होनेपर सत्त्व भी नहीं होता।' हेतुके इस प्रयोगमें स्पष्टतया उदाहरण और उपनयका प्रवेश है। पर धर्मकोति उन्हें हेतुका ही स्वरूप मानते हैं। उन्हें पृथक् स्वीकार नहीं करते ।
अनन्तवीर्य और उनके अनुसर्ता हेमचन्द्रने मीमांसकोंके नामसे चार अवयवमान्यताका उल्लेख किया है, जिसमें उपनय सम्मिलित है। इससे ज्ञात होता हैं कि मीमांसकोंने भी उपनयको माना है । परन्तु यह मान्यता मीमांसकतर्कग्रन्थोंमें उपलब्ध नहीं होती । सांख्यविद्वान् युक्तिदीपिकाकार" भी अपने दशावयवोंमें उपनयका कथन करते हुए पाये जाते हैं। किन्तु माठरने उपनयको स्वीकार नहीं किया। केवल पक्ष, हेतु और दृष्टान्तको उन्होंने अंगीकार किया है ।
जैन परम्परामें गृद्धपिच्छ, समन्तभद्र और सिद्धसेनने उपनयका कोई निर्देश नहीं किया । अकलंक मात्र 'उपनयादिसमम्' शब्दों द्वारा उपनयका उल्लेख तो करते हैं, पर उसके स्वरूपादिका उन्होंने कोई कथन नहीं किया। इतना अवश्य है कि वे प्रतिपाद्यविशेषके लिए उसके प्रयोगका समर्थन करते जान पड़ते हैं । उपनयके स्वरूपका स्पष्ट प्रतिपादन माणिक्यनन्दिने किया है। वे कहते हैं कि पक्ष हेतुके
१. तस्य ( हेतोः ) द्विधा प्रयोगः। साधम्र्येण एकः, वैधम्यणापरः । यथा-यत् सत् तत्
सर्व क्षणिकम् । यथा घटादयः। संश्च शब्दः । तथा, क्षणिकत्वाभावे सत्वाभावः। सर्वोपसंहारेण व्याप्तिप्रदर्शनलक्षणौ साधर्म्यवैधर्माप्रयोगौं उक्तौ ।
-हेतुबि० पृ० ५५ । २. डा. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायवि० प्रस्तावना पृष्ठ १५ । ३. प्रमेयर० मा० ३।३२, पृ० १६४ । ४. प्र० मी० २।११८, पृ० ५२ । ५. साध्यदृष्टांतयोरेकक्रियोपसंहार उपनयः।
-युक्तिदी० का ६, पृ० ४८ । ६. माठरवृ० का० ५। ७. सम्मोहव्यवच्छेदेन तत्त्वावधारणे स्वयं साक्षात्कृतेऽपि साधनवचने कथंचिनिश्चित्य ..."वाचकं उपनयादिसमम् ।
-प्र० स० का० ५१, अक० ग्रंथ० पृ० १११ । ८. तावत् प्रयोक्तव्यं यावता साध्यसाधनमधिकरणं प्रत्येति ।
-वही, स्वो० वृ० पृ० १११ । ९. हेतोरूपसंहार उपनयः।
-परीक्षामु० ३०५०।