________________
अवयव-विमर्श : १७५
किया है । उन्होंने ' आप्तमीमांसा में न्यायसूत्रकारकेर मतसे सहमति प्रकट करते हुए हेतुको अविरोधी ( साध्यके साथ ही रहनेवाला - साध्याभावके साथ न रहनेवाला अर्थात् अविनाभावी - अन्यथानुपपन्न ) होना विशेष आवश्यक बतलाया है । उनके व्याख्याकार अकलंकदेवने उनका आशय उद्घाटित करते हुए लिखा है कि 'सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यात्' इस वाक्य के द्वारा समन्तभद्रने हेतुको त्रिलक्षण सूचित किया है और 'अविरोधत:' पदसे अन्यथानुपपत्तिको दिखलाकर केवल त्रिलक्षणको अहेतु प्रतिपादन किया है । उदाहरणस्वरूप 'तत्पुत्रत्व' आदि असद् हेतुओंको लिया जा सकता है, जिनमें रूप्य तो है, पर अन्यथानुपपत्ति न होनेसे वे गमक नहीं हैं । किन्तु अन्यथानुपपन्न हेतुओंमें उन्होंने गमकता स्वीकार को है । अतएव 'निस्यनैकान्तपक्षेsपि विक्रिया नोपपद्यते' ( आप्तमी० का० ३७ ) इत्यादि स्थलों में अन्यथानुपपत्तिका ही समाश्रय लिया गया है । तात्पर्य यह कि समन्तभद्र रूप्यका निषेध तो नहीं करते । परन्तु हेतुके अविनाभावपर अधिक भार देते हैं ।
पात्रस्वामी', सिद्धसेन", कुमारनन्दि, अकलंक, विद्यानन्द", माणिक्यनन्दि ं, प्रभाचन्द्र", वादिराज, अनन्तवीर्य' २, देवसूरि 3, शान्तिसूरि १४, हेमचन्द्र " धर्मभूषण', यशोविजय और चारुकीर्ति " आदिने मात्र अविनाभात्रीअन्यथानुपपन्न हेतु के प्रयोगको ही अनुमेयका साधक माना है ।
७
१. सधर्मणीव साध्यस्थ साधर्म्यादविरोधत: ।
- आप्तमो० का० १०६ ।
२. उदाहरणसाधर्म्यात्साध्यसाधनं हेतुः । तथा वैधर्म्यात् । न्यायसू० १ । १ । ३४, ३५ ।
३. अष्टश ० अष्टस० पृ० २८९ (आ० मी० का १०६ को विवृति) |
४. तत्रसं० पृ० ४०६ में उद्धृत पात्रस्वामीका 'अन्यथानुपपन्नत्व' पथ ।
५. न्यायाव० का० २१ ।
६. पत्रपरो० में उद्धृत कुमारनन्दिका 'अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं' पद्य ।
७. न्या०वि० का ० २६९, प्र० सं० का० २१, अक० प्र० पृष्ठ ६६ तथा १०२ ।
८. प्र० परी० पृ० ७०, ७१
६. परी० मु० ३।१५ ।
१०. प्रमेयक० मा० ३ । १५, पृ० ३५४ ।
११. न्या० वि० वि० २।१ पृ० २ । प्र० नि० पृ० ४२ ।
१२. प्रमेयर० मा० ३।११, पृ० १४१-१४३ ।
१३. प्र० न० त० ३ ११, पृ० ५१७ ।
१४. न्यायाव० वा० ३।४३, पृ० १०२ ।
१५. प्र० मी० २।१।१२ ।
१६. न्या० दो० पृ० ७६ ।
१७. जैनतर्कभा० पृ० १२ ।
१८. प्रमेयरत्नालं० ३।१५, पृ० १०३ ।