________________
१०४ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान- विचार
चाहिए । इस प्रकारके हेतुस्त्ररूपके अवधारण ( निश्चय ) से हेत्वाभास निरस्त हो जाते हैं ।
काश्यप ( कणाद ) और उनके व्याख्याकार प्रशस्तपादकार भी मत है कि जो अनुमेय के साथ सम्बद्ध है, अनुमेयसे अन्वित ( साधर्म्य उदाहरण - सपक्ष ) में प्रसिद्ध है और उसके अभाव ( वैधर्म्य उदाहरण - विपक्ष ) में नहीं रहता वह लिंग है । ऐसा त्रिरूप लिंग अनुमेयका अनुमापक होता है । इससे विपरीत अलिंग ( हेत्वाभास ) है और वह अनुमेयकी सिद्धि नहीं कर सकता ।
बौद्ध तार्किक न्यायप्रवेशकार भी त्रिरूप हेतुके प्रयोगको हो अनुमेयका साधक बतलाते हैं । धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर आदिने उसका समर्थन किया है ।
9
उपर्युक्त अध्ययनम अवगत होता है कि आरम्भ में त्रिरूपात्मक हेतुका प्रयोग अनुनेयप्रतिपत्ति के लिए आवश्यक माना जाता था । पर उत्तरकालमें न्यायपरम्परा में त्रिरूप हेतुके स्थान में पंचरूप हेतुका प्रयोग अनिवार्य हो गया । उसका सर्वप्रथम प्रतिपादन वाचस्पति मिश्र और जयन्तभट्टने किया है। आगे तो प्रायः सभी परवर्ती न्यायपरम्परा के विद्वानोंने पंचरूप हेतुके प्रयोगका ही समर्थन किया है । किन्तु ध्यान रहे, वैशेषिक और बौद्ध त्रिरूप हेतुके प्रयोगको मान्यतापर आरम्भसे अन्त तक दृढ़ रहे हैं ।
प्रश्न है कि जैन ताकिकोंने किस प्रकारके हेतुके प्रयोगको अनुमेयका गमक स्वीकार किया है ? जैन परम्परा में सबसे पहले समन्तभद्रने हेतु के स्वरूपका निर्देश
१. तदेवं हेतुस्वरूपावधारणात्रामासा निराकृता भवन्ति ।
- न्यायवा०, १०१ । ३४, पृष्ठ ११६ |
२. यदनुमेयेनार्थेन देशविशेषे कालविशेषे वा सहचरितमनुमेयधर्मान्विते चान्यत्र सर्वस्मिन्नेकदेशे वा प्रसिद्धमनुमेयवपरीते च सर्वस्मिन्प्रमाणतोऽसदेव तदप्रसिद्धार्थस्यानुमापकं लिगं भवति ।
-प्रश० भा० पृ० १०० ।
३. न्यायप्र० पृ० १ ।
४. न्यायबिन्दु पृ० २२, २३ । हेतुबि० पृ० ५२ ।
५. न्यायबि० टो० पृ० २२, २३ ।
६. तेन सूत्रस्थेन ( चशब्देन ) अबाधितत्वमसत्प्रतिपक्षत्वमपि रूपद्वयं समुच्चितमित्युक्तं
भवति ।
- न्यायवा० ता० टी० ११११५, पृ० १७४ तथा १७१ ।
७. गम्यतेऽनेनेति लिंगम्, तच्च पंचलक्षणम् एतैः पंचभिर्लक्षणैरुपपन्नं लिंगमनुमापकं
भवति ।
-न्यायमं० पृ० १०१ ।
८. उदयन, न्यायवा० ता० परि० १।१।५ । केशव, तर्कमा० पृ० ८६, ।