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अवयव-विमर्श : १७३
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यशोविजय', चारुकीर्ति प्रभृति तार्किकोंका प्राय: माणिक्यनन्दि जैसा ही मन्तव्य है | हेमचन्द्रने पक्षको साध्यका ही नामान्तर बतलाया है जो सिद्धसेन, अकलंक और विद्यानन्दके अनुरूप है। प्रभाचन्द्रके मतानुसार माणिक्यनन्दिकी तरह अनुमानप्रयोगकालमें साध्य न अग्नि आदि धर्म होता है और न पर्वत आदि धर्मी । अपितु अग्नि आदि धर्मविशिष्ट पर्वत आदि धर्मी अनुमेय होता है और वही प्रतिपादकका प्रतिपाद्य के लिए पक्ष है । अत: साध्य ( धर्मविशिष्ट धर्मी ) को पक्ष कहने में कोई दोष नहीं है ।
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( २ ) हेतु :
अनुमेको सिद्ध करने के लिए साधन (लिङ्ग ) के रूपमें जिस वाक्यावयवका प्रयोग किया जाता है वह हेतु" कहलाता है । साधन और हेतुमें यद्यपि साधारणतया कोई अन्तर नहीं है और इसलिए दोनों का प्रयोग बहुधा पर्यायरूप में मिलता है । पर उनमें वाच्य वाचकका भेद है । साधन वाच्य है, क्योंकि वह कोई वस्तु रूप होता है । और हेतु वाचक है, यतः उसके द्वारा वह कही जाती है। अक्षपादने हेतुका लक्षण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि उदाहरण के साधर्म्य तथा वैधर्म्य से साध्यको सिद्ध करना हेतु है । उनके इस हेतुलक्षणसे हेतुका प्रयोग दो तरहका सिद्ध होता हैं - ( १ ) साधर्म्य और ( २ ) वैधर्म्य । वात्स्यायन' और उद्योतकरने उनके इन दोनों प्रयोगोंकी सम्पुष्टि की है । इन तार्किकोंके मतानुसार हेतुमें साध्य के उदाहरणका साधर्म्य तथा वैधर्म्य दोनों अपेक्षित हैं । अर्थात् हेतुको साध्य ( पक्ष ) में तो रहना ही चाहिए, साधर्म्य उदाहरण ( सपक्ष ) में साध्य के साथ विद्यमान और वैधर्म्य उदाहरण विपक्ष ) में साध्याभाव के साथ अविद्यमान भी होना
१. जंन तकभा० पृ० १३ ।
२. प्रमे० त्नालं० ३।२५, २६ ।
३. 'पक्ष:' इति साध्यस्यंव नामान्तरम् ।
- प्र० मी० १२/१३, पृ० ४५ ।
४. प्रतिनियतसाध्यधर्मविशेषणविशिष्टतया हि धर्मिणः साधयितुमिष्टत्वात् साध्यव्यपदेशाविरोधः। ... साध्यधर्मविशेषणविशिष्टतया हि घर्मिणः साधयितुमिष्टस्य पक्षामिषाने दोषाभावात् ।
- प्रभाचन्द्र, प्रमेयक० मा० ३।२५, २६, ५० ३७१ ।
५. कणाउने हेतु, अपदेश, लिंग, प्रमाण और करण इन सबको हेतुका पर्याय बतलाया है । - वैश १० ९२५ ।
६. उदाहरणसाधम्र्यात्साध्यसाधनं हेतुः । तथा वैधर्म्यात् ।
न्यायसू० १|१|३४, ३५ ।
७. न्यायमा० १११ ३४, ३५ ।
८. न्यायवा० १|१|३४, ३५, पृ० ११८-१३४ ।