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१.२ : जैन तकशास्त्र में अनुमान-विचार
होना पर्याप्त है। यहां उल्लेखनीय है कि अकलंकने धर्मकीतिके उस मतकी मीमांसा भी की है जिसमें धर्मकोतिने धर्मीको उपचारसे पक्ष माना है । अकलंकका कहना है कि धर्मोको उपचारसे पक्ष माननेपर उसका धर्म साध्य भी वास्तविक सिद्ध न होगा-उपचरित सिद्ध होगा। इसके अतिरिक्त धर्मी ( पक्ष ) का धर्म होनेसे पक्षधर्म-हेतु भी उपचरित होगा।
विद्यानन्दने भी अकलकका समर्थन करते हुए उपचारसे धर्मोको पक्ष माननेके धर्मकीर्तिके मन्तव्यका समालोचन किया है। उन्होंने धर्म-धर्मीके समुदायको पक्ष कहने के विचारकी भी समीक्षा की है और साध्यधर्मको पक्ष स्वीकार किया है। उनका मत है कि हेतुका अविनाभाव साध्य-धर्मके साथ ही है, इसलिए साध्यधर्म ही अनुमेय (पक्ष ) है।
माणिक्यनन्दिका' विचार है कि व्याप्तिनिश्चयकालमें धर्म साध्य होता है और अनुमानप्रयोगकालमें धर्मविशिष्ट धर्मों। तथा धर्मीका नाम ही पक्ष है। वात्स्यायन" और उद्योतकरने भी द्विविध साध्य ( धर्मीविशिष्ट धर्म और धर्मविशिष्ट धर्मी ) का तथा धर्मोत्तरने विविध साध्य ( हेतुलक्षणकालमें धर्मो, व्याप्तिनिश्चयकालमें धर्म और साध्यप्रतिपत्तिकालमें समुदाय ) वा प्रतिपादन किया है।
प्रभाचन्द्र , अनन्तवीर्य, वादिराज, देवसूरि', हेमचन्द्र१२, धर्मभूषण'ए, १. पक्षो धर्मीत्युपचारे तद्धर्मतापि न सिद्धा ।।
-सिद्धिवि०६।२. पृ०३७३ । २. पक्षो धर्मी अवयवे समुदायोपचारात् ।
-हेतुबि० पृ० ५२ तथा प्र० वा० स्ववृ० पृ० १२, ११३ । ३. तथा च न धर्मधर्मिसमुदायः पक्षो, नापि तत्तद्धर्मी तद्धर्मत्वस्याविनामावस्वभावत्वाभा
वात् । किं तर्हि, साध्य एव पक्ष इति प्रतिपत्तव्यं तद्धर्मत्वस्येवाविनामावित्वनियमादित्युच्यते। साध्यः पक्षस्तु नः सिद्धस्तद्धर्मों हेतुरित्यपि ।
-त० श्लो० बा० ११३६१५९, १६०, पृष्ठ २०१ । तथा पृ० २८१ । ४. साध्यं धर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मा । पक्ष इति यावत् ।
-परीक्षामु० ३।२५, २६ । ५. न्यायभा० १११।३६, पृ० ४९ । ६. न्यायवा० १।११३६, पृ० १३४ ! ७. न्यायबि० टी० पृ. २४ । ८, ६. प्रमेयक० मा० ३।२५, २६ । प्रमेयर • मा० ३।२१, २२, पृ० १५२ । १०. प्रमाणनि० पृ० ६१ । ११. प्र० न० त ३१४, २० । १२. सिषाधयिषितमसिद्धमबाध्य साध्यं पक्षः ।
-प्र० मी० १।२।१३, पृ० ४५ । १३. न्या० दी०पू० ७२ ।