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अवयव-विमर्श : १७॥
धर्मकोतिने भी पक्षको यही परिभाषा प्रस्तुत की है। यद्यपि वे पक्षप्रयोगको साधनावयव नहीं मानते और इसलिए उनके द्वारा उसकी परिभाषा नहीं होनी चाहिए । तथापि उनके व्याख्याकार धर्मोत्तरके २ अनुसार पक्षशब्दसे उन्हें साध्यार्थ विवक्षित है और चंकि कोई असाध्यको साध्य तथा साध्यको असाध्य मानते हैं, अतः साध्यासाध्यका विवाद निरस्त करनेके लिए उन्होंने पक्षका लक्षण किया है।
जैन तर्कशास्त्र में अधिकांशतः पक्षशब्द ही अभ्युपगत है। प्रतिज्ञाशब्दका प्रयोग बहुत कम हुआ है । बल्कि कुछ तार्किकोंने उसकी समीक्षा की है। सिद्धसेन पक्षका लक्षण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि साध्यका स्वीकार पक्ष है, जो प्रत्यक्षादिसे निराकृत नहीं है और हेतुके विषयका प्रकाशक है। सिद्धसेनके इस पक्षलक्षणमें गौतम, प्रशस्तपाद, न्यायप्रवेशकार और धर्मकीतिके पक्षलक्षणोंका समावेश प्रतीत होता है । 'साध्याभ्युपगमः' पदसे गौतमके 'साध्य-निर्देशः' पदका 'हेतोर्गोचरदीपक:' पदसे प्रशस्तपादके 'अपदेशविषय'का और 'प्रत्यक्षाद्यनिराकृतः' विशेषणसे प्रशस्तपादके 'अविरोधी', न्यायप्रवेशकारके 'प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध' तथा धर्मकोतिके 'अनिराकृत'का संग्रह किया गया है। यह उनकी संग्राहिणी प्रतिभाका द्योतक है, जो एक ही पद्यमें सबका सार समाविष्ट कर लिया है। ___ अकलंकदेवने" साध्यको पक्ष कहा है । उनको दृष्टिमें पक्ष और साध्य दो नहीं हैं। अतएव वे न्यायविनिश्चय और प्रमाणसंग्रहमें पक्षसे अभिन्न साध्यका लक्षण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-जो शक्य ( अबाधित ), अभिप्रेत और अप्रसिद्ध हो वह साध्य है। इससे विपरीत-अशक्य ( बाधित ) अनभिप्रेत और प्रसिद्धको उन्होंने साध्याभास निरूपित किया है, क्योंकि उक्त प्रकारका साध्य साधनका विषय नहीं होता । अकलंकने न्यायप्रवेशकारको तरह पक्षलक्षणमें प्रसिद्ध विशेषण स्वीकार नहीं किया, क्योंकि जब वह साध्य है तो वह अप्रसिद्ध होगा और यह अप्रसिद्धता साध्यधर्मीकी अपेक्षासे हो विवक्षित है, सपक्ष की अपेक्षासे उसकी प्रसिद्धता बतलाना निरर्थक है। वादीको अपेक्षासे अभिप्रेत, प्रतिवादीकी दृष्टिसे अप्रसिद्ध और वादी तथा प्रतिवादी दोनोंकी अपेक्षास उसे शक्य-प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध
१,२. स्वरूपेणैव स्वयमिष्टोऽनिराकृत पक्ष इति ।
-न्यायवि० तृ० परि० पृ० ६० तया इसीकी धर्मोत्तरकृत टीका पृ० ६० । ३. विद्यानन्द, त० श्लो० वा० ११३।१५६; पृ० २०१ । ४. साध्याम्युपगमः पक्षः प्रत्यक्षाधनिराकृतः । तत्प्रयोगोऽत्र कर्तव्यो हेतोगोंचरदोपकः ॥
-न्यायाव० १४ । ५. साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम् । साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ॥
-न्यायवि० २११७२, प्रमाणसं० का० २०, पृ० १०२ ।