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१७० : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार पादयिषित धर्मसे विशिष्ट धर्मीको हेतुका विषय प्रकट करनेके लिए उसका अभिधान करना प्रतिज्ञा है । वास्तव में यदि वह हेतुका विषय विवक्षित न हो तो वह कोरी प्रतिज्ञा होगी, अनुमानका अवयवरूप प्रतिज्ञा नहीं।
न्यायप्रवेशकारने प्रतिज्ञाके स्थानमें पक्ष शब्द दिया है। यह परिवर्तन उन्होंने क्यों किया, यह विचारणीय है, क्योंकि दोनोंका प्रयोग एक हो अर्थ में किया गया है। प्रतिज्ञाका अभिधेयार्थ स्वीकृत सिद्धान्त ( कोटि ) है और यही पक्षशब्दका है। पर विचार करनेपर उनमें सूक्ष्म अन्तर प्रतीत होता है। पक्षशब्द जहाँ अपने सखा सपक्ष और प्रतिद्वन्दी विपक्षको लिए हुए होता है वहाँ प्रतिज्ञाशब्दसे ऐसी कोई बात ध्वनित नहीं होती। प्रतिज्ञा तक के निकट कम है और आगमके निकट अधिक । पर पक्ष तर्कके निकट अधिक है और आगमके निकट कम। और यह प्रकट है कि अनुमानका संवल तर्क हो है-उसीपर वह प्रतिष्ठित है। अतः अनुमान-विचारमें प्रतिज्ञाशब्दकी अपेक्षा पक्षशब्द अधिक अनुरूप है । सम्भवतः यही कारण है कि न्यायप्रवेशकारके पश्चात् पक्षशब्दका अधिक प्रयोग हुआ है। जैन और बौद्ध तर्क ग्रन्थोंमें तो प्रायः यही शब्द अधिक प्रयुक्त मिलता है।
इसकी परिभाषामें न्यायप्रवेशकारने कहा है कि धर्मविशिष्ट धर्मीका नाम पक्ष है, जो प्रसिद्धविशेषणसे विशिष्ट होनेके कारण प्रसिद्ध होता है, साध्यरूपसे इष्ट होता है और प्रत्यक्षादिसे अविरुद्ध । वृत्तिकारके अनुसार विशेषण ( साध्यधर्म ) की प्रसिद्धता सपक्ष में सद्भावको अपेक्षा कही गयी है, साध्यधर्मी ( पक्ष ) में सत्त्वकी अपेक्षा नहीं, वहाँ तो वह असिद्ध ही होता है। वस्तुतः जो सर्वथा अप्रसिद्ध हो वह खपुष्पकी तरह साध्य हो भी नहीं सकता। यही अभिप्राय न्यायप्रवेशकारका साध्यको प्रसिद्ध बतलानेका प्रतीत होता है। तात्पर्य यह कि जो प्रसिद्ध धर्मवाला हो, साध्य हो, अभिप्रेत हो और प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध हो वह पक्ष है।
पक्षः प्रसिद्धो धर्मों प्रसिद्ध विशेषेण विशिष्टतया स्वयं साध्यत्वेनेप्सितः। प्रत्यक्षायविरुद्ध इति वाक्यशेषः।
-न्याय प्र० पृ० १। उद्योतकरसे लेकर नत्र्यनैयायिकों तक न्यायपरम्परामें पक्षशब्दके प्रयोगको बहुलता दृष्टिगोचर होती है। इह धर्मिणस्तावत्प्रसिद्धता युक्ता विशेषणस्य त्वनित्यत्वादेर्न युज्यते । साध्यत्वात् । ...नैतदेवम् । सम्यगर्यानवयोधात् । इह प्रसिद्धता विशेषणस्य न तस्मिन्नेव धर्मिणि समाधीयते । किन्तु धर्म्यन्तरे घटादौ ।... -न्यायप्र० वृ० पृ०१५ ।