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अवयव-विमर्श : १९
(१) प्रतिज्ञा :
प्रतिज्ञाका' दूसरा पर्याय पक्ष अथवा धर्मी है। प्रतिज्ञा शब्दका निर्देश सर्वप्रथम गौतमने किया जान पड़ता है। पांच अवयवोंमें उन्होंने उसे प्रथम स्थान दिया है। उसको परिभाषा देते हुए लिखा है कि साध्यके निर्देशको प्रतिज्ञा कहते हैं। वात्स्यायनने उसकी व्याख्यामें इतना और स्पष्ट किया है कि प्रज्ञापनीय ( साधनीय ) धर्मसे विशिष्ट धर्मीका प्रतिपादक वचन प्रतिज्ञा है। जैसे'शब्द अनित्य है।'
प्रशस्तपादने भी अनुमानवाक्यके पंचावयवोंमें प्रथम अवयवका नाम प्रतिज्ञा ही दिया है । पर उसको परिभाषा गौतमकी प्रतिज्ञा-परिभाषासे विशिष्ट है। उसमें उन्होंने 'अविरोधी' पद और देकर उसके द्वारा प्रत्यक्षबाधित, अनुमानबाधित आदि पांच बाधितोंको निरस्त करके प्रतिज्ञाको अबाधित प्रतिपादित किया है। साथ ही उसका विशदीकरण भी किया है। लिखा है कि प्रतिपि
१, २, ३. ( क ) पक्षः प्रसिद्धी धर्मा ।
-शंकरस्वामी, न्यायप्र० पृ० १ । ( ख ) प्रशापनीयेन धर्मेण धर्मिणो विशिष्टस्य परिग्रहवचनं प्रतिशा ।
-वात्स्यायन, न्या० भा० पृ० ४८, १।१।३३ ।। (ग ) प्रतिपिपादयिषितधर्मविशिष्टस्य धर्मिणोऽपदेशविषयमापादयितुमुद्देशमात्रं
प्रतिज्ञा। -प्रश० भा० पृ० ११४ । (घ ) साध्यं धर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मी । पक्ष इति यावत् । प्रसिद्धो धमी।
-माणिक्यनन्दि, परी० मु० ३।२५, २६, २७। ४, ५. प्रतिज्ञाहेतृदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः ।
-अक्षपाद, न्यायसू० १११।३२ । ६. साध्यनिर्देशः प्रतिशा।
-वही, १६१६३३ । ७. न्यायमा० ११:३३, पृ० ४८ । तथा इसी पृष्ठका १, २, ३ नं० (ख) का फुटनोट। ८. अनुमेयोदेशोऽविरोधी प्रतिज्ञा ।
-प्रश० भा० पृ० ११४ । ९. अविरोधिग्रहणात् प्रत्यक्षानुमानाभ्युपगतस्वशास्त्रस्ववचनविरोधिनो निरस्ता भवन्ति ।
-प्रश० मा० पृ० ११५ । १०. इसी पृष्ठका १, २, ३ नं० (ग) का फुटनोट । २२