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.: जैन वर्कशाबमें अनुमान-विचार
यह हेतुप्रयोग दो तरहसे किया जाता है'-(१) तथोपपत्तिरूपसे और (२) अन्यथानुपपत्तिरूपसे । तथोपपत्तिका अर्थ है साध्यके होनेपर ही साधनका होना'; जैसे अग्निके होनेपर ही धूम होता है । और अन्यथानुपपत्तिका आशय है साध्यके अभावमें साधनका न होना हो; यथा अग्निके अभावमें धूम नहीं हो होता। यद्यपि हेतुके ये दोनों प्रयोग साधर्म्य और वैधर्म्य अथवा अन्वय और व्यतिरेकके तुल्य हैं । किन्तु उनमें अन्तर है । साधर्म्य और वैधर्म्य अथवा अन्वय और व्यतिरेकके साथ एवकार नहीं रहता, अतः वे अनियत भी हो सकते हैं, पर तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्तिके साथ एवकार होनेसे उनमें अनियमको सम्भावना नहीं हैदोनों नियतरूप होते हैं । दूसरे, ये दोनों ज्ञानात्मक हैं, जब कि साधर्म्य और वैधर्म्य अथवा अन्वय और व्यतिरेक ज्ञेयधर्मात्मक हैं । अतः जैन ताकिकोंने उन्हें स्वीकार न कर तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्तिको स्वीकार किया तथा इनमें से किसी एकका ही प्रयोग पर्याप्त माना है। (३) दृष्टान्त : ___ हम पोछे कह आये हैं कि जो प्रतिपाद्य व्युत्पन्न नहीं हैं, न वादाधिकारी हैं
और न वादेच्छुक हैं,किन्तु तत्त्वलिप्सु हैं उन्हें अव्युत्पन्न, बाल अथवा मन्दमति कहा गया है। इनकी अपेक्षा अनुमेयकी प्रतिपत्तिके किए पक्ष, हेतु और दृष्टान्त ये तीन, १. व्युत्पन्नप्रयागस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथानुपपत्त्यैव वा। अग्निमानयं देशस्तथैव घूमवत्वोपपत्तेधूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेर्वा ।
-परी० मु० ३९५ । हेतुप्रयोगस्तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिम्यां द्विप्रकार इति ।
-प्र० न० त० ३३२९, पृ० ५५९ । न्यायाव० का० १७। प्र० मी० २।१।४। २. सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तथोपपत्तिरिति ।
-देवसूरि, प्र० न० त० ३३० । त० श्लो० १११३६१७५ । ३. असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिरिति ।
-वही, ३४३१, पृ० ५६० । ४. (क) अनयोरन्यतरप्रयोगेणैव साध्यप्रतिपत्तौ द्वितीयप्रयोगस्यैकत्रानुपयोग इति ।
-प्र० न० त० ३३३३, पृ०५६० । (ख) हेतोस्तथोपपत्त्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यथापिवा ।
द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति ॥ -सिद्धसेन,न्यायाव० का० १७, । (ग) नानयोस्तात्पर्ये भेदः । अतएव नोभयोः प्रयोगः ।
-हमचन्द्र, प्र० मी० २।११५, ६, पृष्ठ ५० । ५. बालानां त्वव्युत्पन्नप्रशाना"।
प्रमेयक० मा० ३३४६ का उत्थानिकावाक्य, पृ० ३७६ । प्रमेयर० मा० ३।४२ का उत्यानिकावाक्य तथा उसकी व्याख्या। मन्दमतींस्तु व्युत्पादयितुंः । -देवसूरि, प्र० न० त० ३१४२, पृ० ५६४, ।