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१६० : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार __ हमारे उक्त कथनकी सम्पुष्टि पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिसे भी होती है। उसमें उक्त सूत्रोंकी व्याख्या देते हुए उन्होंने बताया है कि हेतुके कथन किये बिना ऊर्ध्वगमन (प्रतिज्ञा)का निश्चय नहीं हो सकता। तथा पुष्कल हेतुओंका प्रयोग होनेपर भी वे दृष्टान्तके समर्थन बिना अभिप्रेतार्थकी सिद्धि करने में असमर्थ हैं। अतएव सूत्रकारने प्रतिज्ञा ( अर्ध्वगमन )को सिद्ध करनेके लिए हेतु और दृष्टान्त प्रतिपादित किये हैं।
पूज्यपादके उक्त व्याख्यानसे निम्नलिखित निष्कर्ष निःसृत होते हैं :
(१) गृद्धपिच्छने प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्तका शब्दविधया कथन भले ही न किया हो, पर अपने अभिप्रेत अर्थको सिद्ध करनेके लिए उनका अर्थतः निर्देश अवश्य किया है।
(२) पूज्यपादने सूत्रकारके कथनका समर्थन न्यायसरणिका अनुसरण करके किया है । अत: नामतः निर्देश न होनेपर भी सूत्रकार अवयवत्रयसे परिचित थे। यतः व्याख्याकार या भाष्यकार अपने युगके विचारोंके आलोकमें प्राचीन तथ्योंके स्पष्टीकरणके साथ नवीन तथ्योंको प्रस्तुत करता है। अतः प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्तके स्पष्टीकरणको हम पूज्यपादकी विचारधारा नहीं मान सकते । पूज्यपादने गृद्ध पिच्छकी मान्यताका हो स्फोटन कर उक्त अवयवत्रयकी उनकी मान्यताको अंकित किया है।
(३ ) गृपिच्छके अवयवत्रयके संकेतको पूज्यपादने तर्क ( अनुमान )का रूप दिया है। यही कारण है कि उन्होंने प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त इन तीनके औचित्यका समर्थन किया है।
( ४ ) जैन नैयायिकोंके अवयव-विचारका सूत्रपात संकेतरूपसे तत्त्वार्थसूत्रमें मिल जाता है । अतएव अवयवोंको स्थापनाका मूल श्रेय जैन तर्कशास्त्र में आ० गृद्धपिच्छको प्राप्त है।
ऐतिहासिक क्रमानुसार गृद्धपिच्छके अनन्तर स्वामी समन्तभद्रका स्थान आता है। समन्तभद्रने भी गृद्धपिच्छके समान उक्त अवयवत्रयका नामतः उल्लेख किये बिना अनुमेयकी सिद्धि प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त इन तीनों अवयवोंसे को है। किन्तु समन्तभद्रको विशेषता यह है कि उन्होंने अनुमेय-सिद्धि पुष्ट तर्कके आलोकमें की है। जहाँ आ० गृद्धपिच्छ चार-चार हेतु और चार-चार दृष्टान्त उपस्थित कर साध्यको सिद्धि करते हैं वहाँ आ० समन्तभद्र एक पुष्ट प्रतिज्ञा और उसको
१. अनुपदिष्टहेतुकमिदमूर्ध्वगमन कथमध्यवसातुं शक्यमिति ? अत्रोच्यते
आह-हेत्वर्थः पुष्कलोऽपि दृष्टान्तसमर्थनमन्तरेणाभिप्रेतार्थसाधनाय नालमिति; उच्यते-स० सि. १०६, ७ को उत्थानिकाएँ ।