________________
१५६ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान विचार नन' और अन्नम्भट प्रभृति नैयायिकों द्वारा यही व्याप्ति-द्वैविध्य अधिक आदृत हुआ है। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीत्ति, अर्चट आदिने भी इसी व्याप्तिद्वैविध्यका उल्लेख किया है। साध्य-साधनके भावात्मक रूपको अन्वयव्याप्ति और उनके अभावात्मक रूपको व्यतिरेकव्याप्ति कहा गया है। इन्हींको साधर्म्यव्याप्ति और वैधर्म्यव्याप्ति नामोंसे भो व्यवहृत किया गया है।
जैन तार्किकोंने " इन्हें क्रमश: तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति संज्ञाओंसे प्रतिपादित किया है । साध्यके होने पर ही साधनका होना तथोपपत्ति है और साध्यके न होनेपर साधनका न होना अन्यथानुपपत्ति है । यथा-वह्निके होनेपर हो धूमका होना और वह्निके न होनेपर धूमका न होना। यथार्य में उनके मतसे ये व्याप्तिके दो भेद नहीं हैं-व्याप्ति तो एक ही प्रकारको है । किन्तु उसका प्रदर्शन या प्रयोग दो तरहसे होता है-तथोपपत्तिरूपसे अथवा अन्यथानुपपत्तिरूपसे । यही कारण है कि इन दो प्रयागोंमेंसे अन्यतर प्रयोगको हो पर्याप्त माना गया है। माणिक्यनन्दिने व्याप्तिके आधार सहभावी और क्रमभावी पदार्थ होनेसे व्याप्तिके सहभावनियम और क्रमभावनियमरूपसे वैविध्यका वर्णन किया है । इसका समर्थन अभिनवचारुकोतिने भी किया है।
१. दैविध्यं भवेद्व्याप्तरन्न यव्यतिरेकतः ।
अन्वयव्याप्तिरक्तव व्यतिरेकादथोच्यते ॥
-सि० मु. का० १४२, पृ० १२५ । २. यत्र धूमस्तत्राग्निर्यथा महानसमित्यन्वयव्याप्तिः । यत्र वहिर्नास्ति तत्र धूमोऽपि नास्ति
यथा हृद इति व्यतिरेकव्याप्तिः ।
-तर्कसं० पृष्ठ ६२। ३. “अन्वयो व्यतिरेको वा उक्तः” वेदितव्य इति सम्बन्धः। अन्वयव्यतिरेकरूपत्वाद्
व्याप्तेरिति भावः।
-हेतुबिन्दु तथा उसकी टीका पृ० १६ । ४. सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तथोपपत्तिरिति । असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिरिति ।
-देवसूरि, प्रमाणनयतत्त्वा० ३।३०, ३१ । ५. व्युत्पन्नपयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथानुपपत्त्यैव वा।
--माणिक्यनन्दि, परीक्षामु० ३।९४ । हेमचन्द्र, प्रमाणमो० २।१।५६ । ६. सहक्रममावनियमोऽविनाभावः ।
-परीक्षामु० ३।१६ । ७. प्रमेयरत्नालंकार ३११६, पृ० १०६ ।