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ज्याति-विमर्श:४१
बतलाते हुए उसे भूयोदर्ननगम्य प्रतिपादन किया है। वे कहते हैं कि चाहे समव्याप्ति हो या विषमव्याप्ति, दोनोंमें व्याप्य ही गमक होता है और व्यापक ही गम्य, क्योंकि व्याप्यके ज्ञानसे व्यापकका ज्ञान अवश्य होता है । परन्तु व्यापकके ज्ञानसे व्याप्यका नहीं । अतः व्याप्यमें व्याप्यता ( व्याप्ति ) और व्यापकमें व्यापिता ( व्यापकता ) है । जब-जब धर्मान्तर ( महानस )में धूम देखा गया तब-तब वहां वह्नि भी देखी गयी। इसलिए धर्मान्तर ( सपक्ष ) में हुआ धूम और वह्निका अनेकबारका सहदर्शन ( भूयोदर्शन ) ही धूम और वह्निमें व्याप्ति-सम्बग्धका निश्चय कराता है । विशेष यह कि कुमारिल' उस व्याप्ति-सम्बन्धको केवल पूर्वदृष्ट महानसादिगत ही मानते तथा उसे ही अनुमानांग कहते हैं, सकलदेशकालगत नहीं । पार्थसारथि कुमारिलके आशयको व्यक्त करते हुए कहते हैं कि बहुत दर्शनोंसे धूम और वह्निके साहित्य ( साहचर्य )का ज्ञान होने और उनमें व्यभिचारका ज्ञान न होने पर महानसादिमें अग्निके साथ धूमकी व्याप्ति अवगत हो जाती है। किन्तु उसके पश्चात् जो ऐसा ज्ञान होता है कि 'जहाँ जहाँ धूम होता है वहीं वहाँ अग्नि होती है, वह परोक्षरूप होनेसे आनुमानिक है । इससे प्रतीत होता है कि कुमारिल और उनके अनुवर्ती मोमांसक तार्किक व्याप्तिको केवल सपक्षगत मानते हैं, उसे सर्वोपसंहारवती नहीं। इसी कारण वे उसे प्रत्यक्ष ( भूयोदर्शन ) गम्य बतलाते हैं। (५) वैशेषिक व्याप्ति-ग्रह :
वैशेषिकदर्जनमें सर्वप्रथम प्रशस्तपादने अन्वय और व्यतिरेक द्वारा व्याप्तिग्रह प्रतिपादन किया है। वे कुमारिलकी तरह व्याप्तिको केवल सपक्षगत नहीं मानते; १. तेन धर्मान्तरेष्वेषा यस्य येनैव यादृशो।
देश यावति काले वा व्याप्यता प्रानिरूपिता ॥ तस्य तावांत तादृक्स दृष्टो धर्म्यन्तरे पुनः । ब्याप्यांशी व्यापकांशस्य तथैव प्रतिपादकः ।
-मी० श्ला० वा० ११११५, अनुमानपरि० श्लो० १०, ११ । २. बहुभिस्तु दर्शनैर्बहुषु देशेषु धूमस्याग्निना साहित्यं गम्यते, तस्मिंश्चावगते व्यभिचारे
चानवगते यथादृष्टेषु धूमस्याग्निना व्याप्तिरवगता भवति । "तावतैव बहुशोऽवगताग्निसाहित्यस्य धूमस्य परिदृष्टेपु देशकालेषु वनिनियमोऽवगतो भवति, तावदेवानुमानांगं, तदनन्तरं तु यत्र यत्र धूमः तत्र तत्राग्निरिति योऽवगमः सोऽप्यानुमानिक एव परोक्षरूपत्वात् तस्य तु प्रत्यक्षत्वं संविद्धिरूद्ध ।
-वही, न्या. रत्ना० ११११५, अनु० ५० १०, ११, पृष्ठ ३५० । ३. विधिस्तु यत्र धूमस्तत्राग्निरग्न्यभावे धूमोऽपि न भवतीति । एवं प्रसिद्धसमयस्या
सन्दिग्धधूमदर्शनात् साहचर्यानुस्मरणात्तदनन्तरमग्न्यध्यवसायो मवतीति । एवं सर्वत्र देशकालाविनाभूत इतरस्य लिगम् । -प्रश० भा० पृ० १०२, १०३ ।