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१४२ : जैन तकशालमें भनुमान-विचार
अपितु समस्त देश और समस्त कालानुयायी बतलाते हैं । उदाहरणार्थ 'जहां धूम होता है वहां अग्नि होती है और जहां अग्नि नहीं होती वहां धूम भी नहीं होता।' इस अन्वय-व्यतिरेक प्रदर्शक उदाहरणसे प्रशस्तपादका अभिप्राय व्याप्तिको सर्वोपसंहारवती बतलानेका स्पष्ट ज्ञात होता है । अन्वयका अर्थ दर्शन और व्यतिरेकका अर्थ अदर्शन है। इन दर्शन-अदर्शनसे व्याप्ति-निश्चय किया जाता है । प्रशस्तपादभाष्यके टीकाकार उदयनका मत है कि साधन और साध्य दोनों सम्बन्धी हैं
और दोनों महानसादिमें प्रत्यक्षसे अवगत हैं, अतः उनकी व्याप्ति ( अविनाभाव सम्बन्ध ) बाह्येन्द्रियजन्य-सविकल्पकप्रत्यक्षग्राह्य ही है । संज्ञा और स्मरण उसके प्रकारान्तर भी सम्भव हैं। टिप्पणकारने भूयोदर्शनसहकृत अन्वय-व्यतरेकको व्याप्तिग्रहोपाय भूचित किया है। (६) न्याय व्याप्तिग्रह :
न्यायादर्शनमें व्याप्तिग्रहणपर कुछ अधिक विस्तृत विचार मिलता है । गौतमने अनुमानका कारण प्रत्यक्ष बतलाया है । वात्स्यायन" उनके प्रत्यक्षपदसे लिंगलिंगीके सम्बन्धदर्शन तथा लिंगदर्शनका ग्रहण करते हैं। साथ ही सम्बद्ध लिंग-लिंगीके दर्शनसे उन्हें लिंगस्मृति अभीष्ट है और इस तरह वात्स्यायन स्मृति और लिंगदर्शन पूर्वक अप्रत्यक्ष अर्थका अनुमान मानते हैं। 'सम्बन्धदर्शन' पदसे उन्हें 'व्याप्तिदर्शन' विवक्षित जान पड़ता है । यदि ऐसा हो तो कहा जा सकता है कि उन्होंने व्याप्तिका ज्ञान प्रत्यक्षसे स्वीकार किया है। उद्योतकरने वात्स्यायनका हो समर्थन किया है। उनका वैशिष्टय है कि उन्होंने लिंगलिंगीसम्बन्धदर्शनको प्रथम प्रत्यक्ष, लिंग
१. उदयन, किरणाव० पृ० ३०१ । २. किं पुनर्व्याप्तिग्रहण प्रमाणं तस्माद् व्याप्तिः प्रत्यक्षयोस्सम्बन्धिनोर्बाह्येन्द्रियजन्यस___ विकल्पकनायव संशास्मरणस्य चात्र प्रकारान्तरेणापि सम्भवात्।
-उदयन, वही, पृष्ठ ३०१, ३०२ । ३. विधिस्त्विति । अविनाभावग्रहणप्रकारस्त्वित्यर्थः । अनेन भूयोदर्शनसहकृतावन्वयव्यतिरेकावेव तद्ग्रहापाय इति सूचितम् ।
-दुण्डिराज शास्त्री, प्रश० मा० टि० पृष्ठ १०२ । ४. गौतम अक्षपाद, न्यायसू० १४१५ । ५. 'तत्पूर्वकम्' इत्यनेन लिंगलिंगिनोः सम्बन्धदर्शनं लिंगदर्शनं चाभिसम्बध्यते । लिंग
लिंगिनोः सम्बद्धयोर्दर्शनेन लिंगस्मृतिरभिसम्बन्ध्यते । स्मृत्या लिंगदर्शनेन चाप्रत्यक्षोऽर्थाऽनुभीयते।
-वात्स्यायन, न्यायभा० ११११५, पृष्ठ २१ । ६. उद्योतर, न्यायवा० ११११५, पृष्ठ ४४ ।। ७. लिंगलिंगिसम्बन्धदर्शनमाषप्रत्यक्षं लिंगदर्शनं द्वितीयम् । तदिदं अन्तिमं प्रत्यक्षं पूर्वाभ्यां प्रत्यक्षाभ्यां स्मृत्या चानुगृह्यमाणं परामर्शरूपमनुमानं भवति । --उद्योतकर, न्यायवा० १।१।५, पृष्ठ ४४ ।