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१४० : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार निविल्पक प्रत्यक्ष के बाद होने वाला सविकल्पक व्याप्तिग्राहक है, जो उक्त दो सम्बन्धोंपर निर्भर है। पर वेदान्तदर्शनमें भूयोदर्शनादि सहक़त निर्विकल्पक अनुभव व्याप्तिको ग्रहण करता है। (३) सांख्य व्याप्ति-ग्रहण :
सांख्यदर्शदमें व्याप्तिग्रह प्रत्यक्ष द्वारा माना गया है । पर भाष्यकार विज्ञानभिक्ष' नियम । अव्यभिचार-व्याप्ति )का ग्रहण अनुकूल तर्क द्वारा भी प्रतिपादन करते हैं । तात्पर्य यह है कि साध्य और साधन दोनोंके अथवा केवल साधनके नियत साहचर्यका नाम व्याप्ति है और इस व्याप्तिका ग्रहण व्यभिचारशंकानिवर्तक अनुकूल तर्क सहकृत दर्शनसे होता है। अतएव व्याप्तिदर्शनके अनन्तर जो वृत्तिरूप साध्यज्ञान होता है उसे अनुमान कहा गया है। ( ४ ) मोमांसा व्याप्ति-ग्रह :
प्रभाकरानुयायी शालिकानाथने अव्यभिचारको व्याप्ति कह कर उसका ग्रहण असकृद्दर्शनसे बतलाया है। उनका अभिमत है कि जिस प्रमाणसे साधन सम्बन्धविशिष्ट गृहीत होता है उसी प्रमाणसे उस साधनका व्याप्ति-सम्बन्ध भी गृहीत हो जाता है। उसके ग्रहणके लिए प्रमाणान्तरकी अपेक्षा नहीं होती। उदाहरणार्थ 'यह धूम अग्नि सम्बद्ध है' ऐसा प्रत्यक्ष (असकृद्दर्शन)से ज्ञान होने पर उसको सम्बन्धिता ( घूमनिष्ठ व्याप्तिसम्बन्ध ) का भी ज्ञान उसीसे हो जाता है । अतः असकृद्दर्शन व्याप्तिग्राहक है।
भट्ट कुमारिलने भाष्यकार शबरके अनुमानलक्षणगत 'सम्बन्धको' व्याप्ति १. प्रबन्धदृशः प्रतिबद्धशानमनुमान्म् । प्रतिबन्धो व्याप्तिः। व्याप्तिदर्शनाद् व्यापकशानं
वृक्तिरूपमनुमानं प्रमाणमिति ।
-सां० द. प्र. भा० १.१००। २. नियतधर्मशाहित्यमभयोरेकतरस्य वा व्याप्तिः। .."तथा चोभयोः साध्यसाधनयोरेकतरस्य
साधनमात्रस्य वा नियतः अव्यभिचरितो यः सहचारः स व्याप्ति नियमश्चानुकूलतकेंण ग्राह्य इति।
-विज्ञानभिक्षु, वही ५।२९ । ३. अव्यभिचारो हि व्याप्तिः.." । "यवस्तु येन प्रमाणेन सम्बन्धविशिष्टं गृह्यते-यथा
प्रत्यक्षेण धूमोऽग्निसम्बन्धविशिष्टः तस्य तेनैव प्रमाणन सम्बन्धे व्याप्यतापि गम्यते । ...अव्यभिचारस्त्वसकृद्दर्शनगम्यः ।
-प्र० पंचिका ११११५, पृष्ठ ९५-९६ । ४. सम्बन्धो व्याप्तिरिष्टाऽत्र लिगधर्मस्य लिंगिना ।
व्याप्यस्य गमकत्वं च व्यापकं गम्यमिष्यते ॥ भूयोदर्शनगम्या च व्याप्तिः सामान्यधर्मयोः । ज्ञायते भेदहानेन क्वचिच्चापि विशेषयोः । -मी० श्लो० ११११५, अनु० परि०, पृष्ठ ३४८ ।