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१०६ : जैन तर्कशास्त्रमें भनुमान-विचार उन्होंने' उपमान, अर्थापत्ति, सम्भव और अभावको भी स्वप्रतिपत्तिकालमें अनक्षरश्रुत और परप्रतिपत्ति कालमे अक्षरश्रुत कहा है, क्योंकि इनके द्वारा भी दोनों प्रकारको प्रतिपत्ति होती है । . पर विद्यानन्द स्वप्रतिपतिकालमें होने वाले अनुमान-स्वार्थानुमानको तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छके अभिप्रायानुसार अभिनिबोधनामक विशिष्ट मतिज्ञान बतलाते हैं, उसे वे श्रुत ( अनक्षरश्रुत ) नहीं कहते, क्योंकि वह शब्दयोजनारहित होता है। किन्तु वे परार्थानुमान (परप्रतिपतिकालमें होनेवाले अनुमान ) को ही अश्रोत्रमति और श्रोत्रमतिजन्य अनक्षरश्रुत और अक्षरश्रुत दोनोंरूप प्रतिपादन करते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि विद्यानन्द परार्थानुमानको ही श्रुतके अन्तर्गत मानते है, स्वार्थानुमानको नहीं ।
यहां अकलंक और विद्यानन्दके प्रतिपादनोंमें एक सक्ष्म अन्तर और दिखाई देता है। अकलंक स्वप्रतिपतिकालमें होनेवाले अनुमान ( स्वार्थानुमान ) को अनक्षरश्रुत और परप्रतिपतिकालमें होनेवाले अनुमान (परार्थानुमान )को अक्षरश्रुत कहते हैं । किन्तु विद्यानन्द परार्थानुमानको ही अनक्ष रश्रुत और अक्षरश्रुत दोनोंरूप प्रकट करते है । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि वे स्वार्थानुमान को शब्दयोजनारहित विशिष्टमतिज्ञान ( अभिनिबोध-मतिज्ञान ) मानते हैं और अपनी इस मान्यताका आधार तत्त्वार्थसूत्रकारके 'मति:स्मृति: ७....' आदि सत्र में आये 'अभिनिबोध' को, जो मतिज्ञानका पर्याय है और जिसे तर्कका फल १. 'यथा गौस्तथा गवयः केवलं सास्नारहितः' इत्युपमानमपि स्वपरप्रतिपत्तिविषयत्वादक्षरानक्षरश्रुते अन्तर्भबति । एतेषामप्यर्थापत्त्यादीनामनुक्तानामनुमानसमानत्वमिति पूर्ववत् श्रुतान्तर्भावः।
-तत्त्वाथवा० १।२०।१५, पृ० ७८ । २. तदेतत्साधनात् साध्यविशानमनुमानं स्वार्थमभिनिबोधलक्षणं विशिष्टमतिशानं साध्यं प्रत्य
भिमुखान्नियमितात्साधनादुपजातबोधस्य तर्कफलस्याभिनिबोध इति संशाप्रतिपादनात्
-प्र० प० पृ० ७६ । ३. लिंगजो बोधः शब्दयोजनारहितोऽभिनिबोध एवेति । 'सत्यं स्वार्थानुमानं तु विना यच्छब्दयोजनात् ।'
-तत्त्वार्थश्लो० वा० १११३१३८८, पृ० २१६ । ४. परार्थमनुमानभनक्षर श्रुतज्ञानं अक्षरश्रुतशानं च, तस्याश्रोत्रमतिपूर्वकस्य श्रोत्रमति
पूर्वकस्य च तथात्वोपपत्तेः। -प्र०प० पृ० ७६ । ५. तदेतत्त्रितयमपि (अनुमानं) स्वप्रतिपत्तिकाले अनक्षरश्रुतं परप्रतिपादनकाले अक्षरश्रुतम् ।
-त० वा० १।१३।१५, पृ० ७८ । ६. प्र०प० पृ० ७६ । तथा पिछले पृष्ठका फुटनोट । ७. तत्त्वार्थसू० १११३ ।