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अनुमान-समीक्षा : १०७
कहा जाता है,' बतलाते है । कुछ भी हो, अनुमान चाहे मतिज्ञान हो, चाहे श्रुतज्ञान । वह परोक्षप्रमाण तो है ही, और वह इतना व्यापक एवं विस्तृत क्षेत्रवाला है कि उसमें अर्थापत्ति, सम्भव और अभावका अन्तर्भाव हो जाता है, जैसा कि हम ऊपर देख चुके है । अकलंकने इतना विशेष और प्रतिपादन किया है कि ये तीनों तथा उपमान स्वप्रतिपत्ति भी कराते हैं और परप्रतिपत्ति भी। चेष्टा और प्रातिभ भी लिंगज होनेसे अनुमानमें ही अन्तर्भुक्त हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन अनुमानका क्षेत्र बहुत विस्तृत और विशाल है। नाना ज्ञानोंको एकत्र लाने, जोड़ने और उन्हें 'अनुमान' जैसी व्यापक संज्ञा देनेवाली जो महत्त्वपूर्ण कड़ी है वह है 'अन्यथानपपन्नत्व' अर्थात् जो ज्ञान अन्यथानुपपन्नमाधनज्ञानजन्य हैं वे सब अनुमान हैं । अन्यथानुपपन्नत्वका विचार आगे किया जाएगा।
१. साधनादुपजातबोधस्य तकफलस्य ।
-प्र०प० पृष्ठ ७६ । २. 'इदमन्तरेण इदमनुपपन्नम्' इसके विना यह नहीं होता-अग्निके विना धूम नहीं
होता, इस प्रकारके अनुमान-प्रयोजक तत्त्वको 'अन्यथानपपन्नत्व' कहा गया है।