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भनुमान-समीक्षा : १०५
नात्मक ज्ञान है । जैसे 'सम्भवति सहस्र शतम्' अर्थात् हजारमें सो सम्भव हैं । अथवा दो सेर वस्तुको देखकर उसमें एक सेर वस्तुकी सम्भावना करना । यह ज्ञान अनुमानके अन्तर्गत आ जाता है, क्योंकि प्रत्यक्ष-सहस्र या दो सेरको देखकर परोक्ष-सौ या एक सेरका अनुमान किया जाता है । विद्यानन्दने इसका उल्लेख करके इसे अनुमानमें अन्तर्भूत किया है ।' प्रातिभका अनुमानमें समावेश :
विद्यानन्दने प्रातिभज्ञानका भी निर्देश किया और उसका अनुमानमें समावेश किया है। जिस रत्नादिके प्रभाव एवं मूल्यादिको सामान्यजन न जान सकें, किन्तु अत्यन्त अभ्यासके कारण तद्विशेषज्ञ व्यक्ति उसके प्रभाव एवं मूल्यादिको तत्काल जान लें, ऐसे ज्ञानको प्रातिभ कहा गया है। यह ज्ञान अनुमान ही है, क्योंकि जिन हेतुओंसे यह होता है वे लिंगसे भिन्न नहीं हैं । अतः यह लैंगिक ही है। ___यहाँ उल्लेखनीय है कि विद्यानन्दसे पर्व अकलंकने भी तत्त्वार्थवातिकमें उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभावके उल्लेग्व-पूर्वक उपमान, शब्द और ऐतिह्यका श्रुतमें एवं अर्थापत्ति, सम्भव और अभावका अनुमानमें अन्तर्भाव किया है । अकलंकको यहां एक विशेषता परिलक्षित होती है । उन्होंने अनुमानका भी श्रुतमें समावेश किया है। उनका मत है कि स्वप्रतिपत्तिकालमें वह अनक्ष रश्रुत है और परप्रतिपादन ( प्रतिपत्ति ) कालमें अक्षरश्रुत । यहाँ अकलंकदेवने पटखण्डागमकी परम्परानुसार अनुमानको श्रुत बतलाया है । हम पहले लिख चुके हैं कि आगममें एक अर्थसे दूसरे अर्थके जाननेको श्रुत कहा गया है । अनुमानमें भी एक अर्थ ( धूमादिक )से दूसरे अर्थ ( अग्न्यादिक )की प्रतिपत्ति की जाती है । अतः आगमकी परम्पराको ध्यान में रखकर ही अकलंकदेवने तत्त्वार्थवातिकमें अनुमानको श्रुत ( अनक्षरश्रुत और अक्षरश्रुत )में अन्तर्भूत किया है । ध्यान रहे कि
१. सम्भवः प्रमाणान्तरमाढकं दृष्ट्वा सम्भवत्याढमिति प्रतिपत्तरन्यथा विरोधात् ।
''सम्भवादेश्च यो हेतुः सोऽपि लिंगान्न भियते । त० श्लो० वा० १।१३।३८८, ३.९, पृ० २१७ । २. प्रातिभं च प्रमाणान्तरमत्यन्ताभ्यासादन्यजनावेद्यस्य रत्नादिप्रभावस्य झटिति प्रतिपत्तेदर्शनादित्यन्ये तान् प्रतीदमुच्यते...।
-वही, १११३।३८८, पृष्ठ २१७ । ३. तत्त्वार्थवा० १।२०।१५, पृ० ७८ । ४. 'यस्मादेतान्यनुमानादीनि श्रुते अन्तर्भवन्ति तदेतत्त्रितयमपि (अनुमान) स्वप्रतिपत्तिकाले अनक्षरश्रुतं परप्रतिपादनकाले अक्षरश्रुतम् । -तत्वार्थवा० १।१३।१५, पृष्ठ ७८ ।