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१०२ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार विक नहीं है । यथार्थमें अनुमानमें भी दृष्टान्त आवश्यक नहीं है । 'सर्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वात, प्रमयत्वाद्वा'-सभी वस्तुएँ अनेकान्तस्वरूप हैं, क्योंकि वे सत् है अथवा प्रमेय हैं, अद्वैतवा दिनोऽपि प्रमाणानि सन्ति इष्टानिष्टसाधनदूषमान्यथानुपपत्तेः'-अद्वैतवादीके भी प्रमाण हैं अन्यथा इष्टका साधन और अनिष्ट का दूषण नहीं बन सकेगा, इत्यादि अनुमानोंमें दृष्टान्त नहीं है और उनकी व्याप्तिका निर्णय पक्षमें ही होता है। अतः जिस तरह इन अनुमानोंमें दृष्टान्तके बिना भी पक्षमें ही अविनाभावका निर्णय हो जाता है उसी तरह अन्य हेतुओंमें भी समझ लेना चाहिए। यहीं कहा जा सकता है कि विना दृष्टान्नके साध्यसाधनके अविनाभावका निर्णय पक्षमें कैसे हो सकता है, क्योंकि वहां साध्य तो अज्ञात है और जब तक साध्य तथा साधन दोनोंका ज्ञान नहीं होगा तब तक उनके अविनाभावका निश्चय असम्भव है ? यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि दृष्टान्तके बिना भी उल्लिखित हेतुओंमें अविनाभावका निश्चय विपक्षमें बाधक प्रमाणके प्रदर्शन एवं तर्कसे होता है। यही दोनों समस्त अनुमानोंमें व्याप्तिनिश्चायक हैं। व्याप्ति निश्चयके लिए यह आवश्यक नहीं कि साध्यका ज्ञान होने पर ही उसका निश्चय हो, क्योंकि व्याप्ति तो हेतुका स्वरूप है और हेतुका ज्ञान हेतु प्रयागके समय हो जाता है । तात्पर्य यह कि दृष्टान्तके बिना भी केवल पक्षमें अथवा पक्षके अभावमें भी विपक्ष में बाधक प्रमाणके बल तथा तकसे साध्यसाधनके अविनाभावका निर्णय हो जाता है । अतः दृष्टान्तका सद्भाव-असद्भाव अनुमान और अर्थापत्तिके पार्थक्यका प्रयोजक नहीं है।
बहिर्व्याप्ति और अन्तर्व्याप्ति भी अनुमान और अर्थापत्तिकी भेदक रेखाएँ नहीं हो सकतीं । यथार्थ में बहिर्व्याप्ति अव्यभिचारिणी व्याप्ति नहीं है । ' श्यामः तत्पुत्रत्वात् इतरतत्पुत्रवत्' इत्यादि स्थलोंमें बहिर्व्याप्तिके विद्यमान रहने पर भी
१. दृष्टान्तरहिते कस्मादविनाभावनिर्णयः ।
अन्यत्र ज्ञातसम्बन्धसाध्यसाधनयोभवेत् ॥ पक्षे तन्निर्णयो न स्यात्साध्यस्याप्रतिपत्तितः । साध्यसाधनवित्तौ हि पक्षे तन्निर्णयो भवेत् ॥ इति चेत्पक्ष एव स्यादविनाभावनिर्णयः। विपक्षे बाधसामर्थ्यात्तर्काच्चास्य विनिश्चयः ॥
-वादीभसिंह, स्याद्वादसि० ६।१०, १२, ११ । २. इति चेदविनाभावः साध्याशानेऽपि गम्यते । तस्य हेतोः स्वरूपत्वात्सामग्रीतोऽस्य निर्णयः ॥ -वही, ९।१४ ।