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अनुमान-समीक्षा : १०३ अन्तर्व्याप्तिके अभावमें 'तत्पुत्रत्व' आदि हेतु साध्यके गमक नहीं है।' वास्तव में अन्तर्व्याप्तिके बलसे ही हेतुको जैनदर्शनमें गमक माना गया है। अतः अन्तर्व्याप्ति ही वास्तविक व्याप्ति है, बहिाप्ति नहीं और अन्तर्व्याप्तिसे विशिष्ट हेतु द्वारा उत्पन्न ज्ञानको ही अनुमान कहा गया है । अतएव अर्थापत्ति और अनुमानमें कोई भेद नहीं है-अनुमानमें ही उसका अन्तर्भाव है क्योंकि दोनोंका प्रयोजक तत्त्व एक अविनाभाव ( अन्यथानुपपत्ति-अन्तर्व्याप्ति ) ही है और उससे विशिष्टअविनाभावी लिंगसे ही दोनों उत्पन्न होते हैं। अन्यथानुपपद्यमान अर्थ और अविनाभावी लिंगमें तात्त्विक कोई अन्तर नहीं है। पक्षधर्मत्वसहिता अर्थापत्ति, पक्षधर्मत्वरहिता अर्थापत्ति, प्रत्यक्षार्थापत्ति, अनुमानार्थापत्ति, उपमानार्थापत्ति, शब्दार्थापत्ति, अर्थापत्तिपूर्विका अर्थापत्ति और अभावार्थापत्ति ये अर्थापत्तिके भेद अविनाभावरूप एकलक्षणसे लक्षित होनेसे अनुमानका ही विस्तार हैं।
अभावको प्रमाणान्तर स्वीकार करने वाले भाट्ट मीमांसकोंका मत है कि यतः वस्तु भावाभावात्मक है, अतः उसके भावांशका ग्रहण तो प्रत्यक्षादि पांच भाबप्रमाणोंसे हो सकता है। परन्तु उसके अभाशांशका परिज्ञान उनके द्वारा सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रमेय भिन्न है। अतएव वहां प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणोंका प्रवेश नहीं है वहां अभावको प्रमाण माना गया है। प्रत्यक्षसे जब हम घटरहित भृतलको देखते हैं और प्रतियोगी घटका स्मरण करते है तो यहां घड़ा नहीं है' इस प्रकारका इन्द्रियनिरपेक्ष मानसिक नास्तिताज्ञान होता है। यह नास्तिताग्राही ज्ञान ही अभावप्रमाण है ?
जैन विचारकोंका मन्तव्य है कि जब वस्तु भावाभावात्मक है और भावांश अभावांशसे भिन्न नहीं है तो जो प्रमाण भावांशको जानेगा वहीं अभावाशको जान लेगा, उसे जाननेके लिए अलग प्रमाणको आवश्यकता नहीं है । तथ्य है कि जब यह
१. किं च पक्षादिधर्मत्वेऽप्यन्ताप्तेतेरभावतः ।
तत्पुत्रत्वादिहेतूनां गमकत्वं न दृश्यते ॥ पक्षवर्मत्वहीनाऽपि गमकः कृत्तिकोदयः । अन्तर्व्याप्तेरतः सैव गमकत्वप्रसाधनी ।।
-स्या० सि०, ४।८२, ६३।। २. प्रमाणपंचक यत्र वस्तुरूपे न जायते ।
वस्तुसत्तावबोधार्थं तत्राभावप्रमाणता ॥ गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताशानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥ न तावदिन्द्रियेणैषा नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः । भावांशनैव सम्बन्धो योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि ।। -कुमारिल, मी० श्लो० अभाव० ५० श्लो० १, २७, १८ ।