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अनुमान-समीक्षा : १.. मनाओंके उत्पन्न होती है और स्मरणसामान्यसे विशिष्ट होती है। यह स्मरणका प्रकार है। ऊहापोहरूप प्रज्ञा है । उसका चिन्ता (तर्क)में समावेश है । प्रसादगुणसे युक्त नवीन-नवीन अर्थोके ज्ञानको व्यक्त करनेवाली प्रतिभा भी चिन्ताका प्रकार है। सादृश्य-विशिष्ट वस्तुमें या वस्तु-विशिष्ट सादृश्यमें होने वाला सादृश्यज्ञानरूप उपमान संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान का प्रकार है। अर्थात् 'गोके सदृश गवय होता है' इस वृद्ध वाक्यका स्मरण कर अरण्यमें गवयको देखकर ‘ऐसी हो गाय होती है। ऐसा सदृशका ज्ञान होना अथवा इसका सादृश्य गायमें है, ऐसा सादृश्यका ज्ञान होना उपमान है । यह सादृश्यप्रत्यभिज्ञानसे भिन्न नहीं है । __ इसी सन्दर्भमें विद्यानन्दने सम्भव, अर्थापत्ति, अभाव और कोई उपमानज्ञानको लिंगजन्य होनेसे उन्हें लैंगिक ( अनुमान )के अन्तर्गत प्रतिपादन किया है । हम पीछे प्रशस्तपादका उल्लेख कर आए हैं । उन्होंने भी इन चारों ज्ञानोंको लिंगजन्य बतला कर उनका अनुमानमें अन्तर्भाव किया है। अर्थापत्ति और अभाव अनुमानसे पृथक् नहीं हैं :
मीमांसक अर्थापत्तिको अनुमानसे पृथक प्रमाण मानने में प्रधान युक्ति यह देते है कि अनुमानमें दृष्टान्तकी अपेक्षा होती है और साध्यसाधनके अविनाभाव ( व्याप्ति )का निर्णय दृष्टान्तमें होता है। पर अर्थापत्तिमें दृष्टान्त अपेक्षित नहीं होता और न अन्यथानुपपद्यमान तथा कल्पित अर्थ के अविनाभावका निश्चय दृष्टान्तमें होता है, अपितु पक्षमें ही होता है। इसी प्रकार अनुमानमे बहिर्व्याप्ति दिखायी जाती है। परन्तु अर्थापत्ति में केवल अन्तर्व्याप्तिको माना गया है। अतः अर्थापत्ति अनुमानसे पृथक् प्रमाण है ?
जैन तार्किकोंका मत है कि अर्थापत्ति और अनुमानका उक्त भेद वास्त
दृष्टान्तनिरपेक्षत्वं लिगण्यापि निवेदितम् । तन्न मानान्तरं लिंगादर्थापत्त्यादिवेदनम् ॥ सिद्धः साध्याविनाभावो यर्थापत्त: प्रभावकः ।
-त. श्लो० १।१३।३९०, ३८६, पृष्ठ २१७ । (ख) ततो यथाऽविनाभावः प्रमाणास्तित्वसाधने ।
अदृष्टान्तेऽपि नितिस्तथा स्यादन्यहेतुषु ।
-वादीभसिंह, स्या० सि० ९.९, पृट ३२। (ग) ननु लिंगस्य दृष्टान्तधर्मिणि प्रवृत्तप्रमाणवशात्सर्वोपसंहारेण स्वसाध्यनियतत्व
निश्चयः, अर्थापत्त्युत्त्थापकार्थस्य तु साध्यमिण्येव प्रवृत्तप्रमाणात्सर्वोपसंहारणादृष्टार्थीन्यथानुपपद्यमानत्वनिश्चय इत्यनयोभेदः, नैतद्युक्तम्, न हि लिंग सपक्षानुगममात्रेण गमकम् , वज्रस्य लोहलेख्यत्वे पार्थिवत्ववत्, श्यामत्वे तत्पुत्रत्ववदा । किं तहि? 'अन्तर्व्याप्तिबलेन' इति - -प्रभाचन्द्र, प्रमेयक० मा० २।२, पृष्ठ १९४ ।