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१०० : जैन तर्कशासमें अनुमान-विचार मन्दतम, तीव्र, तीव्रतर, तोव्रतम जैसे अवच्छेदक भेदोंको धारण करता है तथा आगमभाषामें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल पांच मूल भेदों द्वारा व्यवहृत होता है। इनमें आद्य चार ज्ञानोंके भी अनेक उपभेद हैं। पर 'केवल' एक रूप है और पूर्ण है । उसमें अंश-भेद नहीं है । यह जीवन्मुक्तों ( अर्हतों ) तथा पूर्ण मुक्तात्माओं ( सिद्धों )के ही होता है। वैशेषिकोंके सिद्धदर्शनसे उसकी कुछ तुलना एवं पहचान की जा सकती है, सूक्ष्म, व्यवहित और दूरस्थ सभी पदार्थोंको यह युगपत् जानता है ( तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सवमासनम्आ० मी० १०१ ) और निरावरण होनेके अनन्तर फिर नष्ट नहीं होता-सदा विद्यमान रहता है। इसीसे इसे अविनाशी, असीम, पूर्ण और अनन्त कहा गया है ।
तर्क युगमें इन्हीं ज्ञानोंको परोक्ष और प्रत्यक्ष दो प्रमाणोंमें विभाजित किया है। मति और श्रुत ये दो इन्द्रियादि परापेक्ष होनेसे परोक्ष कहे गये हैं और शेष तीन इन्द्रियादिको अपेक्षा न रखनेके कारण प्रत्यक्ष माने गये हैं। परोक्ष प्रमाणका क्षेत्र इतना व्यापक और विस्तृत है कि इसमें उन सभी ज्ञानोंका समावेश हो जाता है जिनमें इन्द्रिय और मनकी सहायता अपेक्षित है। ऐसे कुछ ज्ञानोंका उल्लेख 'मति स्मृति: संज्ञा चिन्तामिनिबोध इत्यनन्तरम्'" सूत्र द्वारा आचार्य गृद्ध पिच्छने किया है और 'इति' शब्दसे इसी प्रकारके अन्य ज्ञानोंके भी संग्रहकी उन्होंने सूचना की है। वे अन्य ज्ञान कौन है, इसका स्पष्ट निर्देश हमें आ० विद्यानन्दके विवेचनसे मिलता है। उन्होंने लिखा है कि सूत्रकारने 'इति' शब्दसे, जो प्रकारार्थक है, बुद्धि, मेधा, प्रज्ञा, प्रतिभा, अभाव, सम्भव, अर्थापत्ति और उपमानका संग्रह किया है । अर्थ ग्रहणकी जिसमें शक्ति है उसे बुद्धि कहते हैं। यह मति (अवग्रहादि अनुभवविशेष का प्रकार है। अर्थात् वह अनुभवरूप मतिज्ञानका एक भेद है । शब्दस्मरणकी शक्ति मेधा है । वह किन्हीं-किन्हीं महा
१. त० सू० १११३ । २. इति शब्दात्पकारार्थाद् बुद्धिमधा च गृह्यते ।
प्रज्ञा च प्रतिभाऽभावः सम्भवोपमिती तथा ॥ बुद्धिमतेः प्रकारः स्यादर्थग्रहणशक्तिका । मेधा स्मृतेः तथा शब्दस्मृतिशक्तिमनस्विनाम् ॥ ऊहापोहात्मिका प्रज्ञा चिन्तायाः प्रतिभोपमा। सादृश्य.पाधिके भावे सादृश्ये तद्विशेषणे ॥ प्रवर्तमाना केषांचिद् दृष्टा सादृश्यसंविदः । संज्ञायाः, सम्भवाद्यस्तु लैंगिकस्य तथागतेः । -त. क्लो० १।१३।३,५,६,७, पृष्ठ १८८ ।