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भनुमान-समीक्षा : ९९ विद्याएं प्रमाण हैं । पर स्मृति और आर्ष ये मात्र विद्याएँ (ज्ञान) हैं । वे न अतिरिक्त प्रमाण हैं और न उक्त दो प्रमाणोंमें अन्तर्भूत हैं क्योंकि वे परिच्छेदकमात्र हैं, व्यवस्थापक नहीं । प्रशस्तपादने 'शब्दादीनामप्यनुमानेऽन्तर्भावः समानविधित्वात् २ कहकर शब्द, चेष्टा, उपमान, अर्थापत्ति, सम्भव तथा ऐतिह्यका अनुमानमें अन्तर्भाव किया है। निर्णाय' एक विशेषदर्शनसे उत्पन्न अवधाणात्मक ज्ञान है जो कहीं प्रत्यक्षात्मक होता है और कहीं अनुमानात्मक । प्रत्यक्षात्मक निर्णय प्रत्यक्षप्रमाणमें और अनुमानात्मक निर्णय अनुमानमें अन्तर्भूत है । आर्ष आर्षज्ञानरूप है। इसीको प्रातिभ कहते है। यह ऋषिविशेषोंको होता है, जो आत्म-मनःसंयोग और धर्मविशेषसे ग्रन्थों में कथित अथवा अकथित धर्मादि अतीन्द्रिय पदोर्चाको विषय करता है । यह अलौकिक प्रातिभ (आर्ष) है। लौकिकोंको भी यह कभी कदाचित् होता है। उदाहरणार्थ 'कन्यका ब्रवीति श्वः में भ्राता ऽऽगन्तेति हृदयं मे कथयति' अर्थात् कन्या कहती है कि कल मेरा भाई आएगा, ऐसा मेरा दिल बोल रहा है । सिद्ध दर्शनको प्रशस्तपादने अलग ज्ञानान्तर तो नहीं माना, पर उसे प्रत्यक्ष और अनुमानके अन्तर्गत ही बतलाया है। कदाचित् आर्षमें भी उसका अन्तर्भाव हो सकता है। इस प्रकार प्रशस्तपादने ज्ञानोंके अन्तर्भावका संक्षेपमें प्रतिपादन किया है।
गौतमने ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभावका उल्लेख करके उनको अतिरिक्त प्रमाणताकी मीमांसा करते हुए शब्दमें ऐतिह्यका और अनुमानमें अर्थापत्ति, सम्भव तथा अभाव इन तीनोंका अन्तर्भाव किया है।
जैन ताकिकोंने भी इन पर सक्ष्म विचार किया है और उनकी पुष्कल चचों प्रस्तुत की है। जैनागमोंमें ज्ञान और उसके विभिन्न प्रकारोंका विस्तृत निरूपण उपलब्ध है। आहर्तदर्शनमें ज्ञानको आत्माका स्वपरावभासक असाधारण गुण माना गया है और उसे उसका आत्मरूप ( स्वभाव ) स्वीकार किया है, संयोगज या समवायी नहीं । आवरणके न्यूनाधिक अभावसे वह मन्द, मन्दतर,
१. प्र० भा०, पृष्ठ १२८, १२९ । २. वही, पृ० १०६.११२ । ३. वही, पृ० १२७, १२८ । ४. वही, पृ० १२८, १२९ । ५. वही, पृ० १२६ । ६. न्यायसू० २।२।१, २ । ७. तत्र शानं तावदात्मनः स्वपरावभासकः असाधारणो गुणः। स च अभ्रपटविनिमुक्तस्य भास्वत व निरस्तसमस्तावरणस्य जीवस्य स्वभावभूतः केवलशानव्यपदेशं लभते। -यशोविजय, शानबि० प्र० पृष्ठ १ ।