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अनुमान - समीक्षा : ८५ धिकशब्द मतिशब्दकी अपेक्षा, जो उसीका एक पर्याय है, उन्हें कुछ जटिल लगा । अतएव उसके स्थान में मतिको रखकर उसे सरल बना दिया तथा उसके पर्यायोंमें अभिनबोधको भी सम्मिलित कर लिया । यह अभिनिबोधशब्द भी आभिनिबोधिकको अपेक्षा अधिक सुगम है, अतः उसके द्वारा उन्होंने चिन्ता (तर्क) पूर्वक होने वाले लिंगजबोध - अनुमानके संग्रहकी ओर संकेत किया । इस परिवर्तनमें कोई मौलिक सिद्धान्त-भेद या सिद्धान्त विपरीतता नहीं है । फलत: अकलंक, विद्यानन्द जैसे मूर्धन्य मनीषी विचारक उनके इस परिवर्तन से प्रभावित हुए और उससे प्रकाश पाकर उन्होंने अभिनिबोधकी व्याख्या अनुमानपरक प्रस्तुत की । सिद्धान्त-विरोधकी बात उठने पर विद्यानन्दने' सामान्य शब्दको विशेषवाची बतलाकर इस विरोधका परिहार किया। साथ ही अकलंकका आशय २ ग्रहण करके यह भी कह दिया कि अभिनिवोधात्मक ज्ञान शब्दयोजना से पूर्व अर्थात् शब्दयोजनासे रहित दशा में स्वार्थानुमान है । पर शब्दयोजनासे विशिष्ट होने पर वह अभिनिबोधपूर्वक होने वाला श्रुतज्ञान है, जिसे परार्थानुमान कहा जाता है । तात्पर्य यह कि मतिज्ञानके पर्यायनामोंमें पठित 'अभिनिबोध' से स्वार्था
मानका और आगम में आये हेतुवादसे, जो श्रुतज्ञानके पर्याययनामोंमें सामहित है, परार्थानुमानका ग्रहण विवक्षित है । निष्कर्ष यह कि स्वार्थानुमानका प्राचीन मूल रूप अभिनिबोध है और परार्थानुमानका मूल रूप हेतुवाद है । इस तरह जैन अनुमान अभिनिबोध ( मतिज्ञान) और श्रुत दोनोंका प्रतिनिधि है । इसमें तत्त्वार्थसूत्रकार और उनके व्याख्याकारों तथा षट्खण्डागम और धवलाके व्याख्यानों एवं निरूपणों में कोई विरोध या असंगति नहीं है ।
( ख ) अनुमानका महत्त्व एवं आवश्यकता :
प्रत्यक्षकी तरह अनुमान भी अर्थसिद्धिका महत्त्वपूर्ण साधन है | सम्बद्ध और वर्तमान, आसन्न और स्थूल पदार्थोंका ज्ञान इन्द्रियप्रत्यक्षसे किया जा सकता है । पर असम्बद्ध और अवर्तमान - अतीत अनागत तथा दूर और सूक्ष्म अर्थका ज्ञान उससे सम्भव नहीं है, क्योंकि उक्त प्रकारके पदार्थोंको जानने की क्षमता इन्द्रियों में
१. त० लो० १।१३ ३=६-३८८, पृष्ठ २१६ |
२. लघीय० का० १०,१४ ।
३. प्र० प० पृष्ठ ७६, तथा त० श्लो० १।१३। ३८८, पृष्ठ २१६ ।
४. तदेतत्साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानं स्वार्थमभिनिबोवलक्षणं विशिष्टमतिज्ञानम्, साध्यं प्रत्यभिमुखान्नियमितात्साधनादुपजातबोधस्य तर्कफलस्यामिनिबोध इति संशाप्रतिपादनात् । परार्थमनुमानमनक्षरश्रुतज्ञानं अक्षरश्रुतज्ञानं च तस्य श्रोत्रमतिपूर्वकस्य च तथात्वोपपत्तेः ।
- विद्यानन्द, प्र० प० पृष्ठ ७६ ।