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८६ : जैनतर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार
नहीं है । अतः ऐसे पदार्थोंका ज्ञान अनुमान द्वारा किया जाता है। इसे चार्वाक दर्शनको छोड़कर शेष सभी दर्शनोंने स्वीकार किया है और उसे प्रत्यक्षकी ही तरह प्रमाण एवं अर्थ सिद्धिका सबल साधन माना है। चार्वाक इसे न माननेके निम्न कारण प्रस्तुत करते हैं
( १ ) यतः अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक होता है। अतः वह प्रत्यक्षसे भिन्न नहीं है। 'कारणसदृश हि लोकं कायं दृष्टम्' इस सिद्धान्तके अनुसार अनुमान जब प्रत्यक्षका कार्य है तो उसे अपने कारण--प्रत्यक्ष सदृश ही होना चाहिए, विसदृश नहीं।
( २ ) सबसे पहले प्रत्यक्ष होता है, उसके बाद अनुमान। अतः प्रत्यक्ष मुख्य है और अनुमान गौण । अतएव अनुमान गौण होनेसे प्रमाण नहीं है ।२
(३ ) अनुमानमें विसंवाद देखा जाता है। कभी-कभी शक्रमर्धा ( बांबी) और गोपालघटिकामें धूमका भ्रम हो जानेसे वहां भी अग्निका अनुमान होने लगता है। इसके अतिरिक्त वृक्षका जब शिशपासे अनुमान किया जाता है तो शिंशपा वृक्ष ही हो, ऐसा तो नहीं है, कहीं शिशपा लता भी होती है। ऐसी स्थितिमें शिशपा हेतु व्यभिचारी ( वृक्षके अभावमें भी रहने वाली ) होनेसे वृक्षका यथार्थ अनुमापक नहीं हो सकता। अनुपलब्धिसे अभावकी सिद्धि करना भी दोषपूर्ण है। परमाणु, पिशाचादि उपलब्ध नहीं होते, फिर भी उनका सद्भाव बना रह सकता है- अनुपलब्धिसे उनका अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस तरह अनुमानके जनक सभी प्रमुख हेतु व्यभिचारी होनेसे वह अविसंवादी सम्भव नहीं है । अतः प्रत्यक्ष तो प्रमाण है, पर अनुमान प्रमाण नहीं है।
ये तीन कारण हैं जिनसे चार्वाक अनुमानको प्रमाण नहीं मानता । यहाँ इन तीनों कारणों पर विचार किया जाता है
( १ ) प्रत्यक्षपूर्वक होनेसे यदि अनुमान प्रत्यक्षसे भिन्न नहीं है तो कहीं (पर्वतादिकमें अग्निका) प्रत्यक्ष भी अनुमानपूर्वक होनेसे अनुमानसे भिन्न सिद्ध नहीं होगा। जैसे पर्वतमें अनुमानसे अग्निका निश्चय करके उसे प्रत्यक्षसे भी जाननेके लिए प्रवृत्त पुरुषको अग्निका जो प्रत्यक्ष होता है वह अनुमानपूर्वक होन
१. प्र०प० पृष्ठ ६४ । २. प्रमेयरत्नमाला २१२, पृष्ठ ४६ । तथा प्र०प० पृष्ठ ६४ । ३. प्रमेयरत्नमाला २।२, पृष्ट ४४ ।