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८४ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार का बोध कराने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहा गया है ।' धूमके निमित्तसे अग्निका ज्ञान करना नदीप्रसे ऊपरी भागमें वर्षाका ज्ञान करना, देशान्तर प्राप्तिसे सूर्यमें गतिका ज्ञान करना, ये सब श्रुतज्ञानके उदाहरण हैं और अनुमानके भी यही उदाहरण हैं । ज्ञात होता है कि इसीसे षट्खण्डागममें अनुमानको आभिनिबोधिक ज्ञानके पर्यायनामोंमें वर्णित नहीं किया। किन्तु श्रुतज्ञानके एकार्थवाची इकतालोस नामोंमें दत्त 'हेतुवाद' द्वारा उसका श्रुतज्ञानमें संग्रह अथवा अन्तर्भाव किया है। अतः षट्खण्डागमके व्याख्याकार वीरसेनका उपर्युक्त मत ( व्याख्यान ) पट्खण्डागमके अनुरूप है।
(७) प्रश्न है कि आगमकी जब ऐसी प्ररूपणा ( व्यवस्था ) है तो आचार्य गद्धपिच्छने तत्त्वार्थसूत्र में आगमोक्त आभिनिबोधिक ज्ञानके स्थानमें मतिज्ञान नाम
और उसके पर्यायनामोंमें पहलेसे अनुपलब्ध अभिनिबोध शब्द कैसे रखा ? और उनके इस परिवर्तनका कारण क्या है ?
हमारा विचार है कि तत्त्वार्थसूत्रकार उस दर्शनयुगमें हुए हैं जब प्रमाणशास्त्र की चर्चा बहुलतासे होने लगी थी और प्रत्येक दर्शनके लिए आवश्यक था कि वह अपने अभिमत प्रमाणोंका निर्धारण करे। चार्वाकके अतिरिक्त अन्य सभी भार. तीय दर्शनोंने अनुमानको स्वतन्त्र प्रमाणके रूपमें मान लिया था और उसका मूल रूप 'वाकोवाक्यम्' एवं 'आन्वीक्षिकी' विद्यामें खोज निकाला था। आर्हत दर्शन को अपनी विशिष्ट परम्परा रही है । वह ऐसे समयपर मौन नहीं रह सकता था। उसे भी अपनी ओरसे यह निणय करना आवश्यक था कि वह कितने प्रमाण मानता है और वे कौन-कौन-से हैं तथा वह अनुमानको स्वीकार करता है या नहीं ? यद्यपि षट्खण्डागम; प्रवचनसार, अनुयोगद्वार, स्थानांग, भगवती आदि थागम ग्रन्थोंमें ज्ञानमीमांसा तथा प्रमाण-मीमांसा विस्तृत रूपमें निरूपित एवं चचित थी। विषयनिरूपणमें हेतुवादका भी आश्रय लिया जाता था । पर ये सभी ग्रन्थ प्राकृतमे निबद्ध थे और युग था संस्कृतके माध्यमसे दार्शनिक विषयोंके निरूपणका। अतः तत्त्वार्थसूत्रकारने संस्कृतके माध्यमसे आहतदर्शनके प्रायः सभी विषयोंका प्रतिपादन करनेके लिए तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की । यह उपलब्ध जैन संस्कृत-सूत्रग्रंथोंमें आद्य संस्कृत-सूत्र ग्रन्थ है। इसमें धर्म और दर्शन दोनोंका निरूपण है। उनका गहन कार्य था आगमिक प्रमेयोंको दर्शन द्वारा प्रस्तुत करना । इस कार्य में उन्हें निःसन्देह अभूतपूर्व सफलता मिली । अन्य दर्शनोंकी तरह उन्होंने भी नि:श्रेयस और निःश्रेयस मार्गका ज्ञान इस ग्रन्थमें निरूपित किया। आगमानुसार ज्ञान-मीमांसाको प्रस्तुत करते हुए उसमें प्रतिपादित पांच ज्ञानोंमें दत्त आभिनिवो
१. आ० नेमिचन्द्र, गो० जो० ३१५ ।