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पुरोवाक.
भारतीय चिन्तकोंने सही तर्क करने के नियमोंको न्यायशास्त्र कहा है । सही ज्ञान या तत्त्वज्ञानके लिए ज्ञानका स्वरूप, ज्ञानके साधन, ज्ञानकी प्रक्रिया, ज्ञानकी कसौटी, ज्ञानका विस्तार प्रभृति ज्ञानसम्बन्धी प्रश्नोंका विधिवत् अध्ययन अपेक्षित है । भारतीय न्यायशास्त्र में तर्क, अनुमान आदि प्रमाणविषयक प्रश्नोंका सविस्तर अध्ययन किया जाता है । अतः न्यायशास्त्र ज्ञानके सही साधनों द्वारा वस्तुकी सम्यक् परीक्षा प्रस्तुत करता है । पर्याप्त बौद्धिक विश्लेषणके अनन्तर जो चरम सत्य सिद्ध होता है, वही सिद्धान्तरूप में ग्राह्य है ।
तर्कका कार्य ज्ञानकी सत्यता और असत्यताका परीक्षण करना है । मनुष्य तर्कद्वारा ज्ञानका बहुत बड़ा अंश अर्जित करता है । नया अनुभव नये हेतुके मिलने पर ही स्वीकृत होता है । अतएव यह स्पष्ट है कि तर्ककी सहायतासे मनुष्य अपने ज्ञानका संवर्द्धन एवं सत्यापन करता है। तर्कजन्य ज्ञान ही उसे असत्यसे सत्य की ओर ले जाता है ।
न्यायशास्त्र में तर्क और अनुमान दो भिन्न ज्ञानबिन्दु हैं | अनुमान में किसी लिङ्ग या हेतुके ज्ञानके आधारपर किसी दूसरी वस्तुका ज्ञान प्राप्त किया जाता है; क्योंकि उस वस्तु तथा लिङ्गके बीच एक प्रकारका सम्बन्ध है, जो व्याप्ति द्वारा अभिहित किया जाता है। आशय यह है कि अनुमानके पक्षधर्मता और व्याप्ति ये दो आधार हैं । पक्षधर्मताका ज्ञान हुए विना अनुमानकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है | पक्षधर्मता अनुमानकी प्रथम आवश्यकता है; किन्तु पक्षधर्मताके रहनेपर भी व्याप्तिज्ञानके विना अनुमान हो नहीं सकता । अतएव अनुमान के लिए पक्ष - धर्मता और व्याप्ति दोनोंके संयुक्त ज्ञानकी आवश्यकता है । यथा – “पर्वता वह्निमान् धूमवत्त्वात्' इस उदाहरण में पर्वत पक्ष है, यतः पर्वतके सम्बन्ध या पक्षमें ही afar अनुमान होता है । 'अग्नि' साध्य है, क्योंकि इसीको पर्वतके सम्बन्ध में सिद्ध करना है । 'धूम' साधन है, क्योंकि इसीके द्वारा पर्वत में अग्निकी सिद्धि की जाती है । इस प्रकार अनुमान में पक्ष, साधन और साध्य ये तीन पद रहते हैं ।
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अन्वय और व्यतिरेकके निमित्तसे होनेवाले व्याप्तिके ज्ञानको तर्क कहा जाता है । किसी भी अनुमानमें हेतुकी गमकता अविनाभावपर निर्भर करती है और
उपलम्भानुपलम्भनमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः - परोक्षामुख ३।७।
तकें व्याप्यस्य व्यापकस्य च बाधनिश्चयः कारणमिति — न्यायबोधिनी, पूना, पृष्ठ २१ । तकें आपाद्यव्यतिरेकनिश्चयः आपाद्यापदिकयान्याप्तिनिश्चयश्च कारणमिति - नीलकण्ठी ।
पृष्ठ ३८ ।