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६ -- तत्वार्थ
२ - रत्नत्रयाधिकार
यथाख्यात संज्ञा को धारण कर लेता है । इस प्रकार चारित्र पूरा होने में एक लम्बा क्रम है, जिसके बीच में साधक को पूजा, भक्ति, शील, संयम, तप, उपवास, सामायिक ध्यान आदि अनेक बातों का अभ्यास व प्रवृत्ति करनी पड़ती है । ८७. व्यवहार व निश्चय चारित्र का समन्वय करो । व्यवहार चारित्र बाह्य की व्रतादि शुभ क्रियाओं को कहते हैं। और निश्चय चारित्र अन्तरंग के स्वरूपाचरण को इन दोनों की दो अवस्थायें होती हैं - एक मिथ्यादृष्टि में, दूसरी सम्यग् - दृष्टि में । मिथ्यादृष्टि में तो पहिले शुष्क व्यवहार क्रियायें होती हैं, पीछे उसके निमित्त से कदाचित विरक्त चित्त हो जाये तो सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है, अथवा नहीं भी होता है । सम्यक्त्व होने से पहिले वह चारित्र आगामी समीचीनता की सम्भावना के उपचार से सम्यक्चारित्र कहा जाता है, वास्तव में वह मिथ्या ही है ।
सम्यग्दृष्टि को ये दोनों चारित्र युगपत प्रारम्भ होते हैं, परन्तु इनकी पूर्णता आगे पीछे क्रम से होती है । पहले पहल व्यवहार चारित्र का अंश बहुत अधिक होता है और निश्चय का अत्यन्त अल्प । ऊपर की भूमिकाओं में व्यवहार का वाह्य विकल्पात्म अंश घटता जाता है और निश्चय का अन्तरंग साम्यता वाला अंश बढ़ता जाता है । जैसा कि ऊपर वाले प्रश्न में दर्शाया जा चुका है । अन्त में जाकर निश्चय चारित्र पूर्ण हो जाता है और विकल्पात्मक व्यवहार चारित्र उसी में लीन होकर रह जाता है।
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८८. देश चारित्र के कितने अंग हैं ?
बारह — पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षा व्रत ।
८. सकल चारित्र के कितने अंग हैं ?
तेरह - पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति ।