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६-तत्वार्थ
२-रत्नत्रयाधिकार स्थान में पदार्पण करता है, जिसमें वह अणुव्रत आदि रूप से श्रावक का देश चारित्र ग्रहण कर लेता है। अन्तरंग में सामायिक व ध्यान द्वारा स्वरूप में किंचित स्थिरता का अभ्यास करके उसे पहले वाले स्वरूपाचरण चारित्र का सिञ्चन करता रहता है । यहाँ आकर उसके स्थूल लक्षण कुछ कुछ व्यक्त होते हैं। वैराग्य और भी बढ़ जाने पर समस्त परिग्रह को छोड़कर नग्न दिगम्बर यथाजात रूप धर छटे गुणस्थान में प्रवेश करता है। बाहर का समस्त त्याग हो जाने से महाव्रत रूप सफल चारित्र नाम पाता है । अन्तरंग में वह स्वरूप स्थिरता रूप साम्यतामें अधिकाधिक टिके रहने का प्रयत्न करता है । कदाचित निर्विकल्पता का अनुभव करने लगता है तब सातवाँ गुणस्थान कहलाता है । पुनः धर्मोपदेश आ जाने पर पुनः छठा गुण स्थान कहलाता है। इस प्रकार हजारों बार छटे से सातवें में और सातवें से छटे आता हुआ उतार चढ़ाव के झूले में झूलता रहता है। कदाचित चित्त स्थिर हो जाये तो उसे चारित्र की श्रेणी पर चढ़ा हुआ कहा जाता है। यहाँ बुद्धि पूर्वक कोई भी राग या विकल्पादिक नहीं होते, फिर भी अन्दर में अबुद्धि पूर्वक विकल्प आते जाते रहते हैं। स्वरूपाचरण की इस अत्यन्त वृद्धिगत अवस्था का नाम शुक्ल ध्यान है। इस श्रेणी के अन्तर्गत तीन गुणस्थान हैं आठवाँ, नवमाँ, व दशवाँ । इन तीनों गुणस्थानों में उत्तरोत्तर अबुद्धिपूर्वक वाले विकल्प भी नष्ट होते जाते हैं और साथ-साथ स्वरूपाचरण (स्वरूप स्थिति) बढ़ता जाता है । दशवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्मातिसूक्ष्म विकल्प या राग भी निःशेष हो जाता है। अब वह ग्यारहवें व बारहवें गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है, जहाँ उसमें स्वरूपाचरण के परिपूर्ण अंश प्रगट होते हैं, यही