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६-तत्वार्थ
२-रत्नत्रयाधिकार
८४. क्या स्वरूपाचरण भी पूर्ण व अपूर्ण होता है ?
हाँ, क्योंकि सामान्य अपने विशेषों को छोड़कर नहीं वर्तता । चौथे गुण स्थान में इसका सर्वप्रथम प्रारम्भिक अंश प्रगट होता है, जो अत्यन्त तुच्छ शक्ति वाला है। गुण स्थान परिपाटी के अनुसार उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता हुआ अन्त में कषायों के सर्वथा अभाव हो जाने पर १२ वें गुण स्थान में पूर्ण व्यक्त हो
जाता है। ८५. क्या चारित्र प्राप्त करने में कोई कम पड़ता है ?
हां, सम्यग्दर्शन तो एक दम हो जाता है परन्तु चारित्र में गुण स्थान का क्रम पड़ता है; क्योंकि यह धीरे-धीरे वृद्धि को पाता
हुआ वृक्षवत् बहुत काल पश्चात् पूर्णता को प्राप्त होता है । ८६. चारित की पूर्णता का क्या कम है ?
सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाने पर जीव पहले गुण स्थान से एकदम चौथे गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है अर्थात मिथ्या दृष्टि से एकदम सम्यग्दृष्टि हो जाता है। यहां उसको चारित्र का अत्यन्त तुच्छ अंश प्रगट होता है । अव्रत सम्यग्दृष्टि का यह चारित्र व्रतादि रूप परिणत न होने के कारण बाहर में व्यक्त नहीं हो पाता। वह अन्दर ही अन्दर भोगों आदि से हटकर व्रत आदि धारने की भावना करता रहता है। गृहस्थ के कारण लौकिक व्यापार व्यवहार करने में जो उसके द्वारा नित्य पाप होते हैं अथवा कषाय जागृत होती हैं, उनके लिये वह अन्दर ही अन्दर अपने को धिक्कारता रहता है, अपनी निन्दा करता रहता है। यही स्वरूपाचरण का प्रारम्भिक अंश है क्योंकि बिना स्वरूप के प्रति झुके दोषों की यथार्थ प्रतीति सम्भव नहीं। ऐसा यह प्रारम्भिक अन्तरंग चारित्र सम्यग्दर्शन के साथ ही साथ उत्पन्न हो जाता है अर्थात उसका अविनाभावी है। आगे दिनों दिन वैराग्य का अंश बढ़ते रहने से वह पंचम गुण