________________
६-६तत्वार्थ
२८५
२-रत्नत्रयाधिकार ७८. चारित्र को निश्चय व व्यवहार विशेषण क्यों दिये गए ?
निश्चय अभेद या अद्वैत को कहते हैं और व्यवहार भेद या द्वैत को । ध्यान में जीव की प्रवृत्ति निर्विकल्प तथा आत्मस्वरूप निमग्न होने के कारण अद्वैत है। इसलिये वह निश्चय कहलाती है । व्रतादि में जीव की प्रवृत्ति व्रतादि धारने के तथा पत्राचार रखने के विकल्पों सहित होती है । इसी कारण आत्म स्वरूप बाह्य होने से द्वैत रूप है। अत: वह व्यवहार
कहलाती है। ७६. फिर निश्चय चारित्र ही करना चाहिये व्यवहार से क्या?
व्यवहार चरित्र के बिना प्रारम्भ में ही निश्चय चारित्र सम्भव नहीं, इसलिये व्यवहार चारित्र साधन हैं और निश्चय चारित्र
साध्य । ८०. व्यवहार चारित्र निश्चय का साधन कैसे है ?
इच्छायें व कषायें दूर किये बिना निर्मल आत्मा का ध्यान व अनुभव नहीं हो सकता। इच्छायें व कषायें विषय भोगों के त्याग बिना रुक नहीं सकतीं। विषय भोग वैराग्य बिना त्यागे नहीं जा सकते । वैराग्य प्राप्ति के अभ्यासार्थ वीतराग देव शास्त्र गुरु का आश्रय भक्ति सेवा आदि करना तथा उनके उपदेश आदि सुनना आवश्यक हैं। इसलिये व्यवहार चारित्र
निश्चय का साधन है। ८१. चारित्र कितने प्रकार का है ?
चार का प्रकार है--स्वरूपाचरण चारित्र, देशचारित्र, सकल
चारित्र, यथाख्यात चारित्र । ८२. इन चार चारित्रों में निश्चय चारित्रों कौन सा है ?
यथाख्यात चारित्र निश्चय चारित्र है। ८३. स्वरूपाचरण भी तो निश्चय चारित्र है ?
स्वरूपाचरण सामान्य है और यथाख्यात उसका विशेष । स्वरूपाचरण के पूर्व विकास का नाम ही यथाख्यात है।