________________
६- तत्वार्थ
२८६
( ५ रत्नत्रय सामान्य )
९०. रत्नत्रय किसको कहते हैं ?
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं ।
६१. इन तीनों को रत्न क्यों कहा ?
क्योंकि रत्नवत अत्यन्त दुर्लभ मूल्यवान व इष्ट है ।
६२ रत्नत्वय कितने प्रकार का होता है ? दो प्रकार का - व्यवहार व निश्चय ।
२ - रत्नत्रयाधिकार
३. व्यवहार रत्नत्रय किसको कहते हैं ?
व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान व व्यवहार सम्यक् - चारित्र को दैत या भेद होने के कारण व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं । ४. निश्चय रत्नत्रय किसको कहते हैं ?
शुद्धात्मा की श्रद्धा, उस ही का परिज्ञान और उस ही में स्थिर चित्तवाली अत्यन्त निष्ठा; एक अद्वैत व अखण्ड रूप होने के कारण निश्चय रत्नत्रय कहलाता है ।
६५. व्यवहार रत्नलय किसको होता है ?
सम्यग्दर्शन प्रगट होने के पश्चात से साधु होने तक अर्थात चौथे गुणस्थान से छठे सातवें गुणस्थान तक व्यवहार रत्नवय होता है, क्योंकि इन भूमिकाओं में अभेद व निर्विकल्प ध्यान नहीं होता ।
६. निश्चय रत्नत्रय किनको होता है ?
आठवें से दशवें गुणस्थान तक शुक्लध्यानी साधुओं को निश्चय रत्नत्रय होता है, और आगे सिद्धावस्था पर्यन्त भी वही बना रहता है।
६७. रत्नत्नय में कौन प्रधान है ?
वैसे तो तीनों ही अपने अपने स्थान पर प्रधान है; फिर भी अपेक्षावश सम्यग्दर्शन ही प्रधान माना गया है।
८. सम्यग्दर्शन की प्रधानता क्यों ?
सम्यग्दर्शन के बिना बड़े बड़े विद्वानों का शास्त्रज्ञान भी